हिन्दी ऑनलाइन जानकारी के मंच पर आज हम पढ़ेंगे देशभक्ति पर कविताएं, Desh Bhakti Kavita in Hindi.
देश भक्ति, एक ऐसा अद्वितीय भावनाओं का संगम है जो हमारे हृदय को गहराईयों से छू लेता है और राष्ट्र के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना को साकार रूप में प्रकट करता है। इस भावना को व्यक्त करने का एक सुंदर तरीका है देशभक्ति कविता।
“देशभक्ति कविता” में शब्दों का जादू होता है, जो हमें एक समृद्ध, सामरिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से जोड़ता है। इस कविता की भाषा हिंदी है, जो हमारे देश की भूमि से जुड़ी है और हमारे लोकतांत्रिक एवं विविध सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देती है।
देशभक्ति कविता हमारे देश के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना को सुनहरे अल्फाज़ों में रूपांतरित करती है। यहाँ हम कुछ ऐसी कविताएँ प्रस्तुत करेंगे जो हमारे देश की महानता को महसूस कराती हैं। इस यात्रा में हम साझा करेंगे वो अनुभव और भावनाएँ जो एक शब्दों की शृंगार रचना के माध्यम से हमें मिलती हैं, जो देशभक्ति कविता के माध्यम से हमें विशेषता और गर्व की भावना से भर देती हैं।
:- Best Desh Bhakti Kavita in Hindi देशभक्ति पर सर्वश्रेष्ठ कविताएँ -:
सरफ़रोशी की तमन्ना -: बिस्मिल अज़ीमाबादी ( देशभक्ति कविता )
इस रचना के कवि बिस्मिल अज़ीमाबादी हैं, परन्तु मशहूर यह राम प्रसाद बिस्मिल के नाम से है।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है
करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है
ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा गैर की महफ़िल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
खैंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है
यूँ खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है
वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें ना हो खून-ए-जुनून
तूफ़ानों से क्या लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है,
हाथ जिन में हो जुनूँ कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है,
है लिये हथियार दुशमन ताक में बैठा उधर,
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है,
हम तो घर से निकले ही थे बाँधकर सर पे कफ़न,
जान हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम
जिन्दगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल में है,
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा -: श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ ( देशभक्ति कविता )
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति बरसाने वाला,
प्रेम सुधा सरसाने वाला
वीरों को हरषाने वाला
मातृभूमि का तन-मन सारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
स्वतंत्रता के भीषण रण में,
लखकर जोश बढ़े क्षण-क्षण में,
काँपे शत्रु देखकर मन में,
मिट जावे भय संकट सारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
इस झंडे के नीचे निर्भय,
हो स्वराज जनता का निश्चय,
बोलो भारत माता की जय,
स्वतंत्रता ही ध्येय हमारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
आओ प्यारे वीरों आओ,
देश-जाति पर बलि-बलि जाओ,
एक साथ सब मिलकर गाओ,
प्यारा भारत देश हमारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
इसकी शान न जाने पावे,
चाहे जान भले ही जावे,
विश्व-विजय करके दिखलावे,
तब होवे प्रण-पूर्ण हमारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
न चाहूँ मान दुनिया में -: राम प्रसाद बिस्मिल ( देशभक्ति कविता )
न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना
मुझे वर दे यही माता रहूँ भारत पे दीवाना
करुँ मैं कौम की सेवा पडे़ चाहे करोड़ों दुख
अगर फ़िर जन्म लूँ आकर तो भारत में ही हो आना
लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखुँ हिन्दी
चलन हिन्दी चलूँ, हिन्दी पहरना, ओढना खाना
भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना
लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन
करुँ मैं प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना
नहीं कुछ गैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से “बिस्मिल” तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना।।
घायल हिन्दुस्तान -: हरिवंशराय बच्चन ( देशभक्ति कविता )
मुझको है विश्वास किसी दिन
घायल हिंदुस्तान उठेगा।
दबी हुई दुबकी बैठी हैं
कलरवकारी चार दिशाएँ,
ठगी हुई, ठिठकी-सी लगतीं
नभ की चिर गतिमान हवाएँ,
अंबर के आनन के ऊपर
एक मुर्दनी-सी छाई है,
एक उदासी में डूबी हैं
तृण-तरुवर-पल्लव-लतिकाएँ;
आंधी के पहले देखा है
कभी प्रकृति का निश्चल चेहरा?
इस निश्चलता के अंदर से
ही भीषण तूफान उठेगा।
मुझको है विश्वास किसी दिन
घायल हिंदुस्तान उठेगा।
हे मातृभूमि -: रामप्रसाद बिस्मिल ( देशभक्ति कविता )
हे मातृभूमि ! तेरे चरणों में सिर नवाऊँ
मैं भक्ति भेंट अपनी, तेरी शरण में लाऊँ ।
माथे पे तू हो चन्दन, छाती पे तू हो माला
जिह्वा पे गीत तू हो, तेरा ही नाम गाऊँ ।
जिससे सपूत उपजें, श्रीराम-कृष्ण जैसे
उस धूल को मैं तेरी निज शीश पे चढ़ाऊँ ।
माई समुद्र जिसकी पदरज को नित्य धोकर
करता प्रणाम तुझको, मैं वे चरण दबाऊँ ।
सेवा में तेरी माता ! मैं भेदभाव तजकर
वह पुण्य नाम तेरा, प्रतिदिन सुनूँ सुनाऊँ ।
तेरे ही काम आऊँ, तेरा ही मन्त्र गाऊँ
मन और देह तुझ पर बलिदान मैं चढ़ाऊँ ।
गणतंत्र दिवस -: हरिवंशराय बच्चन ( देशभक्ति कविता )
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,
कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,
इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,
और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!
किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
जय बोलो उस धीर व्रती की जिसने सोता देश जगाया,
जिसने मिट्टी के पुतलों को वीरों का बाना पहनाया,
जिसने आज़ादी लेने की एक निराली राह निकाली,
और स्वयं उसपर चलने में जिसने अपना शीश चढ़ाया,
घृणा मिटाने को दुनियाँ से लिखा लहू से जिसने अपने,
“जो कि तुम्हारे हित विष घोले, तुम उसके हित अमृत घोलो।”
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
कठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना,
कठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना,
ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें,
किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना,
बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं,
बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
कटीं बेड़ियाँ औ’ हथकड़ियाँ, हर्ष मनाओ, मंगल गाओ,
किंतु यहाँ पर लक्ष्य नहीं है, आगे पथ पर पाँव बढ़ाओ,
आज़ादी वह मूर्ति नहीं है जो बैठी रहती मंदिर में,
उसकी पूजा करनी है तो नक्षत्रों से होड़ लगाओ।
हल्का फूल नहीं आज़ादी, वह है भारी ज़िम्मेदारी,
उसे उठाने को कंधों के, भुजदंडों के, बल को तोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएंगे -: अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ( देशभक्ति कविता )
कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएंगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।
हटने के नहीं पीछे, डरकर कभी जुल्मों से,
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।
बेशस्त्र नहीं हैं हम, बल है हमें चरख़े का,
चरख़े से ज़मीं को हम, ता चर्ख़ गुंजा देंगे।
परवा नहीं कुछ दम की, ग़म की नहीं, मातम की,
है जान हथेली पर, एक दम में गंवा देंगे।
उफ़ तक भी जुबां से हम हरगिज़ न निकालेंगे,
तलवार उठाओ तुम, हम सर को झुका देंगे।
सीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीका,
चलवाओ गन मशीनें, हम सीना अड़ा देंगे।
दिलवाओ हमें फांसी, ऐलान से कहते हैं,
ख़ूं से ही हम शहीदों के, फ़ौज बना देंगे।
मुसाफ़िर जो अंडमान के, तूने बनाए, ज़ालिम,
आज़ाद ही होने पर, हम उनको बुला लेंगे।
जन्मभूमि -: अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ( देशभक्ति कविता )
सुरसरि सी सरि है कहाँ मेरु सुमेर समान।
जन्मभूमि सी भू नहीं भूमण्डल में आन।
प्रतिदिन पूजें भाव से चढ़ा भक्ति के फूल।
नहीं जन्म भर हम सके जन्मभूमि को भूल।
पग सेवा है जननि की जनजीवन का सार।
मिले राजपद भी रहे जन्मभूमि रज प्यार।
आजीवन उसको गिनें सकल अवनि सिंह मौर।
जन्मभूमि जल जात के बने रहे जन भौंर।
कौन नहीं है पूजता कर गौरव गुण गान।
जननी जननी जनक की जन्मभूमि को जान।
उपजाती है फूल फल जन्मभूमि की खेह।
सुख संचन रत छवि सदन ये कंचन सी देह।
उसके हित में ही लगे हैं जिससे वह जात।
जन्म सफल हो वार कर जन्मभूमि पर गात।
योगी बन उसके लिये हम साधे सब योग।
सब भोगों से हैं भले जन्मभूमि के भोग।
फलद कल्पतरू–तुल्य हैं सारे विटप बबूल।
हरि–पद–रज सी पूत है जन्म धरा की धूल।
जन्मभूमि में हैं सकल सुख सुषमा समवेत।
अनुपम रत्न समेत हैं मानव रत्न निकेत।
मातृभूमि -: मैथिलीशरण गुप्त ( देशभक्ति कविता )
नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥
मृतक समान अशक्त, विवश आँखों को मीचे,
गिरता दुआ विलोक गर्भ से हमको नीचे;
करके जिसने कृपा हमें अवलम्ब दिया था,
लेकर अपने अतुल अंक में त्राण किया था,
जो जननी का भी सर्वदा थी पालन करती रही ।
तू क्यों न हमारी पूज्य हो? मातृभूमि, माता मही!
जिसकी रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥
हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?
पालन, पोषण और जन्म का कारण तू ही,
वक्ष-स्थल पर हमें कर रही धारन तू ही;
अभ्रंकष प्रासाद और ये महल हमारे,
बने हुए हैं अहो तुझी से तुझ पर सारे;
हे मातृभूमि, हम जब कभी शरण न तेरी पायेंगे।
बस, तभी प्रलय के पेट में सभी लीन हो जायेंगे ॥
हमें जीवनाधार अन्न तू ही देती है,
बदले में कुछ नहीं किसी से तू लेती है;
श्रेष्ठ एक से एक विविध द्रव्यों के द्वारा,
पोषण करती प्रेम भाव से सदा हमारा;
हे मातृभूमि, उपजे न जो तुझ से कृषि-अंकुर कभी।
तो तड़प तड़प कर जल मरें, जठरानल में हम सभी ।।
पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥
फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥
जिन मित्रों का मिलन मलिनता को है खोता,
जिस प्रेमी का प्रेम हमें मुददायक होता;
जिन स्वजनों को देख हृदय हर्षित हो जाता,
नहीं टूटता कभी जन्म भर जिनसे नाता;
उन सब में तेरा सर्वदा व्याप्त हो रहा तत्व है ।
हे मातृभूमि, तेरे सदृश किसका महा महत्व है?
निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥
शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥
सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥
जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥
दीख रही है कहीं दूर तक शैलश्रेणी,
कहीं घनावलि बनी हुई है तेरी वेणी;
नदियां पैर पखार रही हैं बनकर चेरी,
पुष्पों से तरू-राजि कर रही पूजा तेरी;
मृदु मलय-वायु मानो तुझे चन्दन चारु चढ़ा रही ।
हे मातृभूमि, किसका न तू सात्विक भाव बढ़ा रही?
क्षमामई, तू दयामई है, क्षेममई है।
सुधामई, वात्सल्यमई, तू प्रेममई है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥
हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥
आते ही उपकार याद हे माता ! तेरा,
हो जाता मन मुग्ध भक्ति-भावों का प्रेरा;
तू पूजा के योग्य, कीर्ति तेरी हम गावें,
मन होता है-तुझे उठा कर शीश-चढ़ावें;
वह शक्ति कहां, हा ! क्या करें, क्यों हम को लज्जा न हो?
हम मातृभूमि, केवल तुझे शीश झुका सकते अहो !
कारण वश जब शोक-दाह से हम दहते हैं,
तब तुझ पर ही लोट-लोट कर दुख सहते हैं ।
पाखण्डी भी धूल चढ़ाकर तन में तेरी,
कहलाते हैं साधु, नहीं लगती है देरी;
इस तेरी ही शुचि धूलि में मातृभूमि वह शक्ति है-
जो क्रूरों के भी चित्त में उपजा सकती भक्ति है!
कोई व्यक्ति विशेष नहीं तेरा अपना है,
जो यह समझे हाय ! देखता वह सपना है;
तुझ को सारे जीव एक से ही प्यारे हैं,
कर्मों के फल मात्र यहाँ न्यारे न्यारे हैं;
हे मातृभूमि!, तेरे निकट सब का सब सम्बन्ध है।
जो भेद मानता वह अहो! लोचनयुत भी अन्ध है ।।
जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥
उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥
आज़ादों का गीत -: हरिवंशराय बच्चन ( देशभक्ति कविता )
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!
चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सजतीं गुड़ियाँ,
इनसे आतंकित करने की बीत गई घड़ियाँ,
इनसे सज-धज बैठा करते
जो, हैं कठपुतले।
हमने तोड़ अभी फैंकी हैं
बेड़ी-हथकड़ियाँ,
परम्परा पुरखों की हमने
जाग्रत की फिर से,
उठा शीश पर हमने रक्खा
हिम किरीट उज्जवल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!
चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सज सिंहासन,
जो बैठा करते थे उनका
खत्म हुआ शासन,
उनका वह सामान अजायब-
घर की अब शोभा,
उनका वह इतिहास महज
इतिहासों का वर्णन,
नहीं जिसे छू कभी सकेंगे
शाह लुटेरे भी,
तख़्त हमारा भारत माँ की
गोदी का शाद्वल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!
चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सजवा छाते
जो अपने सिर पर तनवाते
थे, अब शरमाते,
फूल-कली बरसाने वाली
दूर गई दुनिया,
वज्रों के वाहन अम्बर में,
निर्भय घहराते,
इन्द्रायुध भी एक बार जो
हिम्मत से औड़े,
छ्त्र हमारा निर्मित करते
साठ कोटि करतल।
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!
चांदी, सोने, हीरे, मोती
का हाथों में दंड,
चिन्ह कभी का अधिकारों का
अब केवल पाखंड,
समझ गई अब सारी जगती
क्या सिंगार, क्या सत्य,
कर्मठ हाथों के अन्दर ही
बसता तेज प्रचंड,
जिधर उठेगा महा सृष्टि
होगी या महा प्रलय,
विकल हमारे राज दंड में
साठ कोटि भुजबल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!
आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की -: कवि प्रदीप ( देशभक्ति कविता )
आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की
वंदे मातरम, वंदे मातरम
उत्तर में रखवाली करता पर्वतराज विराट है
दक्षिण में चरणों को धोता सागर का सम्राट है
जमुना जी के तट को देखो गंगा का ये घाट है
बाट-बाट में हाट-हाट में यहाँ निराला ठाठ है
देखो ये तस्वीरें अपने गौरव की अभिमान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती हैं बलिदान की
वंदे मातरम, वंदे मातरम
ये हैं अपना राजपूताना नाज़ इसे तलवारों पे
इसने सारा जीवन काटा बरछी तीर कटारों पे
ये प्रताप का वतन पला है आज़ादी के नारों पे
कूद पड़ी थी यहाँ हज़ारों पद्मिनियाँ अंगारों पे
बोल रही है कण कण से क़ुर्बानी राजस्थान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की
वंदे मातरम, वंदे मातरम
देखो मुल्क मराठों का यह यहां शिवाजी डोला था
मुग़लों की ताकत को जिसने तलवारों पे तोला था
हर पर्वत पे आग जली थी हर पत्थर एक शोला था
बोली हर-हर महादेव की बच्चा-बच्चा बोला था
शेर शिवाजी ने रखी थी लाज हमारी शान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की
वंदे मातरम, वंदे मातरम
जलियाँवाला बाग ये देखो यहीं चली थी गोलियां
ये मत पूछो किसने खेली यहाँ खून की होलियां
एक तरफ़ बंदूकें दन दन एक तरफ़ थी टोलियां
मरनेवाले बोल रहे थे इंक़लाब की बोलियां
यहां लगा दी बहनों ने भी बाजी अपनी जान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की
वंदे मातरम, वंदे मातरम
ये देखो बंगाल यहां का हर चप्पा हरियाला है
यहां का बच्चा-बच्चा अपने देश पे मरनेवाला है
ढाला है इसको बिजली ने भूचालों ने पाला है
मुट्ठी में तूफ़ान बंधा है और प्राण में ज्वाला है
जन्मभूमि है यही हमारे वीर सुभाष महान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की
वंदे मातरम, वंदे मातरम
वह खून कहो किस मतलब का -: गोपाल प्रसाद व्यास ( देशभक्ति कविता )
वह खून कहो किस मतलब का जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का आ सके देश के काम नहीं।।
वह खून कहो किस मतलब का जिसमें जीवन, न रवानी है।
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है।।
उस दिन लोगों ने सही-सही खून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में मॉंगी उनसे कुरबानी थी।।
बोले, “स्वतंत्रता की खातिर बलिदान तुम्हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा।।
आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के फूलों से गूँथी जाएगी।।
आजादी का संग्राम कहीं पैसे पर खेला जाता है।
यह शीश कटाने का सौदा नंगे सर झेला जाता है।।
यूँ कहते-कहते वक्ता की आंखों में खून उतर आया।
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा दमकी उनकी रक्तिम काया।।
आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले, “रक्त मुझे देना।
इसके बदले भारत की आज़ादी तुम मुझसे लेना।।
हो गई सभा में उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे।
स्वर इनकलाब के नारों के कोसों तक छाए जाते थे।।
“हम देंगे-देंगे खून” शब्द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े तैयार दिखाई देते थे।।
बोले सुभाष, “इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं आकर हस्ताक्षर करता है।।
इसको भरनेवाले जन को सर्वस्व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन माता को अर्पण करना है।।
पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का कुछ उज्जवल रक्त गिराना है।।
वह आगे आए जिसके तन में खून भारतीय बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को हिंदुस्तानी कहता हो।।
वह आगे आए, जो इस पर खूनी हस्ताक्षर करता हो।
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए जो इसको हँसकर लेता हो।।
सारी जनता हुंकार उठी हम आते हैं, हम आते हैं।
माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्त चढाते हैं।।
साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे।
चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्त गिराते थे।।
फिर उस रक्त की स्याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे।
आज़ादी के परवाने पर हस्ताक्षर करते जाते थे।।
उस दिन तारों ने देखा था हिंदुस्तानी विश्वास नया।
जब लिक्खा महा रणवीरों ने ख़ूँ से अपना इतिहास नया।।
हम होंगे कामयाब -: गिरिजा कुमार माथुर ( देशभक्ति कविता )
होंगे कामयाब,
हम होंगे कामयाब एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन।
हम चलेंगे साथ-साथ
डाल हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ, एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन।
होगी शांति चारों ओर
होगी शांति चारों ओर, एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होगी शांति चारों ओर एक दिन।
नहीं डर किसी का आज
नहीं डर किसी का आज एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज एक दिन।
होंगे कामयाब,
हम होंगे कामयाब एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन।
भारत की आरती -: शमशेर बहादुर सिंह ( देशभक्ति कविता )
भारत की आरती
देश-देश की स्वतंत्रता देवी
आज अमित प्रेम से उतारती।
निकटपूर्व, पूर्व, पूर्व-दक्षिण में
जन-गण-मन इस अपूर्व शुभ क्षण में
गाते हों घर में हों या रण में
भारत की लोकतंत्र भारती।
गर्व आज करता है एशिया
अरब, चीन, मिस्र, हिंद-एशिया
उत्तर की लोक संघ शक्तियां
युग-युग की आशाएं वारतीं।
साम्राज्य पूंजी का क्षत होवे
ऊंच-नीच का विधान नत होवे
साधिकार जनता उन्नत होवे
जो समाजवाद जय पुकारती।
जन का विश्वास ही हिमालय है
भारत का जन-मन ही गंगा है
हिन्द महासागर लोकाशय है
यही शक्ति सत्य को उभारती।
यह किसान कमकर की भूमि है
पावन बलिदानों की भूमि है
भव के अरमानों की भूमि है
मानव इतिहास को संवारती।
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