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Best Motivational Poems In Hindi, प्रसिद्ध प्रेरणादायक कविताएं -:
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती – सोहनलाल द्विवेदी
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती।
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है।
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है।
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती।
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है।
जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में।
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती।
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।।
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो।
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम।
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती।
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।।
वीर – रामधारी सिंह दिनकर
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शुलों का मूळ नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुन बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भितर,
मेंहदी में जैसी लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।
अग्निपथ – हरिवंश राय बच्चन
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी,
माँग मत, माँग मत, माँग मत,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।
तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।
यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।
बढ़े चलो बढ़े चलो – सोहनलाल द्विवेदी
न हाथ एक शस्त्र हो
न हाथ एक अस्त्र हो
न अन्न वीर वस्त्र हो
हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो।।
रहे समक्ष हिम-शिखर
तुम्हारा प्रण उठे निखर
भले ही जाए जन बिखर
रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो।।
घटा घिरी अटूट हो
अधर में कालकूट हो
वही सुधा का घूंट हो
जिये चलो, मरे चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो।।
गगन उगलता आग हो
छिड़ा मरण का राग हो
लहू का अपने फाग हो
अड़ो वहीं, गड़ो वहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो।।
चलो नई मिसाल हो
जलो नई मिसाल हो
बढो़ नया कमाल हो
झुको नहीं, रूको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो।।
अशेष रक्त तोल दो
स्वतंत्रता का मोल दो
कड़ी युगों की खोल दो
डरो नहीं, मरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो।।
वरदान माँगूँगा नहीं – शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं ।
वरदान माँगूँगा नहीं ।।
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खण्डहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्व की सम्पत्ति चाहूँगा नहीं ।
वरदान माँगूँगा नहीं ।।
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही ।
वरदान माँगूँगा नहीं ।।
लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं ।
वरदान माँगूँगा नहीं ।।
चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्त्तव्य पथ से किन्तु भागूँगा नहीं ।
वरदान माँगूँगा नहीं ।।
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो।
धीर तुम बढ़े चलो।।
सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो।
धीर तुम बढ़े चलो।।
प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो।
धीर तुम बढ़े चलो।।
एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये
वीर तुम बढ़े चलो।
धीर तुम बढ़े चलो।।
अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो।
धीर तुम बढ़े चलो।।
रुके न तू – प्रसून जोशी
धरा हिला, गगन गुंजा
नदी बहा, पवन चला
विजय तेरी, विजय तेरी
ज्योति सी जल, जला
भुजा-भुजा, फड़क-फड़क
रक्त में धड़क-धड़क
धनुष उठा, प्रहार कर
तू सबसे पहला वार कर
अग्नि सी धधक-धधक
हिरन सी सजग-सजग
सिंह सी दहाड़ कर
शंख सी पुकार कर
रुके न तू, थके न तू
झुके न तू, थमे न तू
सदा चले, थके न तू
रुके न तू, झुके न तू
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार – शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।।
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड़ में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।।
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।।
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पंदन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं – गोपालदास “नीरज”
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
हैं फूल रोकते, काटें मुझे चलाते
मरुस्थल, पहाड़ चलने की चाह बढ़ाते
सच कहता हूँ जब मुश्किलें ना होती हैं
मेरे पग तब चलने में भी शर्माते
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूँ
मैं मरघट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूँ
हूँ आँख-मिचौनी खेल चला किस्मत से
सौ बार मृत्यु के गले चूम आया हूँ
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझ पर न कोई एहसान करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
श्रम के जल से राह सदा सिंचती है
गति की मशाल आंधी मैं ही हँसती है
शोलों से ही शृंगार पथिक का होता है
मंज़िल की मांग लहू से ही सजती है
पग में गति आती है, छाले छिलने से
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
फूलों से जग आसान नहीं होता है
रुकने से पग गतिवान नहीं होता है
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगति भी
है नाश जहाँ निर्माण वहीं होता है
मैं बसा सकूं नव-स्वर्ग “धरा” पर जिससे
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
मैं पंथी तूफ़ानों में राह बनाता
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता
वह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर
मैं ठोकर उसे लगा कर बढ़ता जाता
मैं ठुकरा सकूँ तुम्हें भी हँसकर जिससे
तुम मेरा मन-मानस पाषाण करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
नर हो, न निराश करो मन को – मैथिलीशरण गुप्त
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।
संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को।
प्रभु ने तुमको कर दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को।
किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जन हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को।
करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
आरम्भ है प्रचंड – पीयूष मिश्रा
आरम्भ है प्रचंड,
बोले मस्तकों के झुंड,
आज ज़ंग की घडी की तुम गुहार दो,
आन बान शान,
याकि जान का हो दान,
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो!
मन करे सो प्राण दे,
जो मन करे सो प्राण ले,
वही तो एक सर्वशक्तिमान है,
विश्व की पुकार है,
ये भागवत का सार है,
कि युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है,
कौरवों की भीड़ हो,
या पांडवों का नीड़ हो,
जो लड़ सका है वो ही तो महान है!
जीत की हवस नहीं,
किसी पे कोई वश नहीं,
क्या ज़िन्दगी है, ठोकरों पे मार दो,
मौत अंत है नहीं,
तो मौत से भी क्यों डरें,
ये जाके आसमान में दहाड़ दो!
आरम्भ है प्रचंड,
बोले मस्तकों के झुंड,
आज ज़ंग की घडी की तुम गुहार दो,
आन बान शान,
याकि जान का हो दान,
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो!
हो दया का भाव,
याकि शौर्य का चुनाव,
याकि हार का वो घाव तुम ये सोच लो,
याकि पूरे भाल पे जला रहे विजय का लाल,
लाल यह गुलाल तुम ये सोच लो,
रंग केसरी हो या,
मृदंग केसरी हो,
याकि केसरी हो ताल तुम ये सोच लो!
जिस कवि की कल्पना में ज़िन्दगी हो प्रेम गीत,
उस कवि को आज तुम नकार दो,
भीगती मसों में आज,
फूलती रगों में आज,
जो आग की लपट का तुम बघार दो!
आरम्भ है प्रचंड,
बोले मस्तकों के झुंड,
आज ज़ंग की घडी की तुम गुहार दो,
आन बान शान,
याकि जान का हो दान,
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो!
तू युद्ध कर – अभिषेक मिश्र
माना हालात प्रतिकूल हैं,
रास्तों पर बिछे शूल हैं
रिश्तों पे जम गई धूल है
पर तू खुद अपना अवरोध न बन
तू उठ
खुद अपनी राह बना
माना सूरज अँधेरे में खो गया है
पर रात अभी हुई नहीं,
यह तो प्रभात की बेला है
तेरे संग है उम्मीदें,
किसने कहा तू अकेला है
तू खुद अपना विहान बन,
तू खुद अपना विधान बन
सत्य की जीत ही तेरा लक्ष्य हो
अपने मन का धीरज,
तू कभी न खो
रण छोड़ने वाले होते हैं कायर
तू तो परमवीर है,
तू युद्ध कर
तू युद्ध कर
इस युद्ध भूमि पर,
तू अपनी विजयगाथा लिख
जीतकर के ये जंग,
तू बन जा वीर अमिट
तू खुद सर्व समर्थ है,
वीरता से जीने का ही कुछ अर्थ है
तू युद्ध कर
बस युद्ध कर
चलना हमारा काम है – शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है।
कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।
जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।
इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।
मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।
साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।
फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे – रामधारी सिंह दिनकर
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा सम्भालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
चढ़ तुँग शैल शिखरों पर सोम पियो रे।
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे।।
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नई आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे।
गरजे कृशानु तब कँचन शुद्ध करो रे।।
जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी, नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरँग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है।
तलवार प्रेम से और तेज होती है।।
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाए
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे।
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे।।
स्वातन्त्रय जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे।
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे।।
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है
चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे।
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे।।
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिन्तन है
जीवन का अन्तिम ध्येय स्वयं जीवन है
सबसे स्वतन्त्र रस जो भी अनघ पिएगा।
पूरा जीवन केवल वह वीर जिएगा।।
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों – गोपालदास “नीरज”
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है।
माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है।
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।
लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गन्ध फूल की,
तूफानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है!
लोहे के पेड़ हरे होंगे – रामधारी सिंह दिनकर
लोहे के पेड़ हरे होंगे,
तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर,
आँसू के कण बरसाता चल।
सिसकियों और चीत्कारों से,
जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों क हो ढेर,
खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।
आशा के स्वर का भार,
पवन को लेकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग
मुर्दों को देना ही होगा।
रंगो के सातों घट उँड़ेल,
यह अँधियारी रँग जायेगी,
ऊषा को सत्य बनाने को
जावक नभ पर छितराता चल।
आदर्शों से आदर्श भिड़े,
प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है,
धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल,
निरुपाय बुद्धि चकराती है,
विज्ञान-यान पर चढी हुई
सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता,
संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हृदय,
तू यह संवाद सुनाता चल।
सूरज है जग का बुझा-बुझा,
चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई,
आलोक न इनका जगता है।
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में
कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर
घिसकर इनको ताजा कर दे।
दीपक के जलते प्राण,
दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत् को देने को
अपनी अस्थियाँ जलाता चल।
क्या उन्हें देख विस्मित होना,
जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को जो हैं गूँथ रहे
सोने-चाँदी के तारों में।
मानवता का तू विप्र!
गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल
जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा,
सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल,
मगर उस का भी मोल चुकाता चल।
काया की कितनी धूम-धाम!
दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयुष,
मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है।
लेने दे जग को उसे,
ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण
में नीचे-नीचे चलता है।
कनकाभ धूल झर जाएगी,
वे रंग कभी उड़ जाएँगे,
सौरभ है केवल सार, उसे
तू सब के लिए जुगाता चल।
क्या अपनी उन से होड़,
अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं,
गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं?
जो चतुर चाँद का रस निचोड़
प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से
जो इत्र निकाला करते हैं।
ये भी जाएँगे कभी, मगर,
आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुसकाता आया है,
वैसे अब भी मुसकाता चल।
सभ्यता-अंग पर क्षत कराल,
यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे,
हमारी आँखों में गंगाजल है।
शूली पर चढ़ा मसीहा को
वे फूल नहीं समाते हैं
हम शव को जीवित करने को
छायापुर में ले जाते हैं।
भींगी चाँदनियों में जीता,
जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के
मन में गोधूलि बसाता चल।
यह देख नयी लीला उनकी,
फिर उनने बड़ा कमाल किया,
गाँधी के लोहू से सारे,
भारत-सागर को लाल किया।
जो उठे राम, जो उठे कृष्ण,
भारत की मिट्टी रोती है,
क्या हुआ कि प्यारे गाँधी की
यह लाश न जिन्दा होती है?
तलवार मारती जिन्हें,
बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी!
यह भी कमाल दिखलाता चल।
धरती के भाग हरे होंगे,
भारती अमृत बरसाएगी,
दिन की कराल दाहकता पर
चाँदनी सुशीतल छाएगी।
ज्वालामुखियों के कण्ठों में
कलकण्ठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा,
फूलों से भरा भुवन होगा।
बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी,
मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी,
मुँह खोल-खोल सब के भीतर
शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।
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