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15 + Famous Makhanlal Chaturvedi Poems In Hindi

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हिन्दी साहित्य में माखनलाल चतुर्वेदी की कविताएं बहुत प्रसिद्ध हैं। जिसमें से पुष्प की अभिलाषा कविता बहुत ज्यादा प्रसिद्ध कविता है।

Makhanlal Chaturvedi poems in hindi माखनलाल चतुर्वेदी की कविताएं -:

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर, चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।

मुझे तोड़ लेना वनमाली।
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।।

दीप से दीप जले

सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।।

लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में

लक्ष्मी सर्जन हुआ कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।

गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल

शकट चले जलयान चले गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर

भवन-भवन तेरा मंदिर है स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।

वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल

तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।।

प्यारे भारत देश

प्यारे भारत देश

गगन-गगन तेरा यश फहरा
पवन-पवन तेरा बल गहरा
क्षिति-जल-नभ पर डाल हिंडोले
चरण-चरण संचरण सुनहरा

ओ ऋषियों के त्वेष
प्यारे भारत देश।।

वेदों से बलिदानों तक जो होड़ लगी
प्रथम प्रभात किरण से हिम में जोत जागी
उतर पड़ी गंगा खेतों खलिहानों तक
मानो आँसू आये बलि-महमानों तक

सुख कर जग के क्लेश
प्यारे भारत देश।।

तेरे पर्वत शिखर कि नभ को भू के मौन इशारे
तेरे वन जग उठे पवन से हरित इरादे प्यारे
राम-कृष्ण के लीलालय में उठे बुद्ध की वाणी
काबा से कैलाश तलक उमड़ी कविता कल्याणी

बातें करे दिनेश
प्यारे भारत देश।।

जपी-तपी, संन्यासी, कर्षक कृष्ण रंग में डूबे
हम सब एक, अनेक रूप में, क्या उभरे क्या ऊबे
सजग एशिया की सीमा में रहता केद नहीं
काले गोरे रंग-बिरंगे हममें भेद नहीं

श्रम के भाग्य निवेश
प्यारे भारत देश।।

वह बज उठी बासुँरी यमुना तट से धीरे-धीरे
उठ आई यह भरत-मेदिनी, शीतल मन्द समीरे
बोल रहा इतिहास, देश सोये रहस्य है खोल रहा
जय प्रयत्न, जिन पर आन्दोलित-जग हँस-हँस जय बोल रहा,

जय-जय अमित अशेष
प्यारे भारत देश।।

वेणु लो, गूँजे धरा

वेणु लो, गूँजे धरा मेरे सलोने श्याम
एशिया की गोपियों ने वेणि बाँधी है
गूँजते हों गान,गिरते हों अमित अभिमान
तारकों-सी नृत्य ने बारात साधी है।

युग-धरा से दृग-धरा तक खींच मधुर लकीर
उठ पड़े हैं चरण कितने लाड़ले छुम से
आज अणु ने प्रलय की टीका
विश्व-शिशु करता रहा प्रण-वाद जब तुमसे।

शील से लग पंचशील बना, लगी फिर होड़
विकल आगी पर तृणों के मोल की बकवास
भट्टियाँ हैं, हम शान्ति-रक्षक हैं
क्यों विकास करे भड़कता विश्व सत्यानाश।

वेद की-सी वाणियों-सी निम्नगा की दौड़
ऋषि-गुहा-संकल्प से ऊँचे उठे नगराज
घूमती धरती, सिसकती प्राण वाली साँस
श्याम तुमको खोजती, बोली विवश वह आज।

आज बल से, मधुर बलि की, यों छिड़े फिर होड़
जगत में उभरें अमित निर्माण, फिर निर्माण,
श्वास के पंखे झलें, ले एक और हिलोर
जहाँ व्रजवासिनि पुकारें वहाँ भेज त्राण।

हैं तुम्हारे साथ वंशी के उठे से वंश
और अपमानित उठा रक्खे अधर पर गान
रस बरस उट्ठा रसा से कसमसाहट ले
खुल गये हैं कान आशातीत आहट ले।

यह उठी आराधिका सी राधिका रसराज
विकल यमुना के स्वरों फिर बीन बोली आज
क्षुधित फण पर क्रुधित फणि की नृत्य कर गणतंत्र
सर्जना के तन्त्र ले, मधु-अर्चना के मन्त्र।

आज कोई विश्व-दैत्य तुम्हें चुनौती दे
औ महाभारत न हो पाये सखे! सुकुमार
बलवती अक्षौहिणियाँ विश्व-नाश करें
`शस्त्र मैं लूँगा नहीं’ की कर सको हुँकार।

किन्तु प्रण की, प्रण की बाजी जगे उस दिन
हो कि इस भू-भाग पर ही जिस किसी का वार
तब हथेली गर्विताएँ, कोटि शिर-गण देख
विजय पर हँस कर मनावें लाड़ला त्यौहार।

आज प्राण वसुन्धरा पर यों बिके से हैं
मरण के संकेत जीवन पर लिखे से हैं
मृत्यु की कीमत चुकायेंगे सखे मय सूद
दृष्टि पर हिम शैल हो, हर साँस में बारूद।

जग उठे नेपाल प्रहरी, हँस उठे गन्धार
उदधि-ज्वारों उमड़ आय वसुन्धरा में प्यार
अभय वैरागिन प्रतीक्षा अमर बोले बोल
एशिया की गोप-बाला उठें वेणी खोल।

नष्ट होने दो सखे! संहार के सौ काम
वेणु लो, गूँजे धरा, मेरे सलोने श्याम।।

अमर राष्ट्र

छोड़ चले, ले तेरी कुटिया
यह लुटिया-डोरी ले अपनी
फिर वह पापड़ नहीं बेलने
फिर वह माल पडे न जपनी।

यह जागृति तेरी तू ले-ले
मुझको मेरा दे-दे सपना
तेरे शीतल सिंहासन से
सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।

सूली का पथ ही सीखा हूँ
सुविधा सदा बचाता आया
मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ
जीवन-ज्वाल जलाता आया।

एक फूँक, मेरा अभिमत है
फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल
मैं तो हूँ बलि-धारा-पन्थी
फेंक चुका कब का गंगाजल।

इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे
इस उतार से जा न सकोगे
तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो
जीवन-पथ अपना न सकोगे।

श्वेत केश?- भाई होने को
हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाकी
आया था इस घर एकाकी
जाने दो मुझको एकाकी।

अपना कृपा-दान एकत्रित
कर लो, उससे जी बहला लें
युग की होली माँग रही है
लाओ उसमें आग लगा दें।

मत बोलो वे रस की बातें
रस उसका जिसकी तरुणाई
रस उसका जिसने सिर सौंपा
आगी लगा भभूत रमायी।

जिस रस में कीड़े पड़ते हों
उस रस पर विष हँस-हँस डालो
आओ गले लगो, ऐ साजन
रेतो तीर, कमान सँभालो।

हाय, राष्ट्र-मन्दिर में जाकर,
तुमने पत्थर का प्रभू खोजा
लगे माँगने जाकर रक्षा
और स्वर्ण-रूपे का बोझा।

मैं यह चला पत्थरों पर चढ़
मेरा दिलबर वहीं मिलेगा
फूँक जला दें सोना-चाँदी
तभी क्रान्ति का समुन खिलेगा।

चट्टानें चिंघाड़े हँस-हँस
सागर गरजे मस्ताना-सा
प्रलय राग अपना भी उसमें
गूँथ चलें ताना-बाना-सा।

बहुत हुई यह आँख-मिचौनी
तुम्हें मुबारक यह वैतरनी
मैं साँसों के डाँड उठाकर
पार चला, लेकर युग-तरनी।

मेरी आँखे, मातृ-भूमि से
नक्षत्रों तक, खीचें रेखा
मेरी पलक-पलक पर गिरता
जग के उथल-पुथल का लेखा।

मैं पहला पत्थर मन्दिर का
अनजाना पथ जान रहा हूँ
गूड़ँ नींव में, अपने कन्धों पर
मन्दिर अनुमान रहा हूँ।

मरण और सपनों में
होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी
किसकी यह मरजी-नामरजी
किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी।

अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र
यह मेरी बोली
यह सुधार समझौतों बाली
मुझको भाती नहीं ठठोली।

मैं न सहूँगा-मुकुट और
सिंहासन ने वह मूछ मरोरी
जाने दे, सिर, लेकर मुझको
ले सँभाल यह लोटा-डोरी।

दूधिया चाँदनी साँवली हो गई

साँस के प्रश्न-चिन्हों, लिखी स्वर-कथा
क्या व्यथा में घुली, बावली हो गई
तारकों से मिली, चन्द्र को चूमती
दूधिया चाँदनी साँवली हो गई।

खेल खेली खुली, मंजरी से मिली
यों कली बेकली की छटा हो गई
वृक्ष की बाँह से छाँह आई उतर
खेलते फूल पर वह घटा हो गई।

वृत्त लड़ियाँ बना, वे चटकती हुई
खूब चिड़ियाँ चली, शीश पै छा गई
वे बिना रूप वाली, रसीली, शुभा
नन्दिता, वन्दिता, वायु को भा गई।

चूँ चहक चुपचपाई फुदक फूल पर
क्या कहा वृक्ष ने, ये समा क्यों गई
बोलती वृन्त पर ये कहाँ सो गई
चुप रहीं तो भला प्यार को पा गई।

वह कहाँ बज उठी श्याम की बाँसुरी
बोल के झूलने झूल लहरा उठी
वह गगन, यह पवन, यह जलन, यह मिलन
नेह की डाल से रागिनी गा उठी।

ये शिखर, ये अँगुलियाँ उठीं भूमि की
क्या हुआ, किसलिए तिलमिलाने लगी
साँस क्यों आस से सुर मिलाने लगी
प्यास क्यों त्रास से दूर जाने लगी।

शीष के ये खिले वृन्द मकरन्द के
लो चढ़ायें नगाधीश के नाथ को
द्रुत उठायें, चलायें, चढ़ायें, मगन
हाथ में हाथ ले, माथ पर माथ को।

एक तुम हो

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो

रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।

कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।

तुझे सौगंध है घनश्याम की आ
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ।

तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा

तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।

रहे मन-भेद तेरा और मेरा
अमर हो देश का कल का सबेरा
कि वह कश्मीर, वह नेपाल, गोवा
कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा

प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।

वे तुम्हारे बोल

वे तुम्हारे बोल
वह तुम्हारा प्यार, चुम्बन
वह तुम्हारा स्नेह-सिहरन
वे तुम्हारे बोल

वे अनमोल मोती
वे रजत-क्षण
वह तुम्हारे आँसुओं के बिन्दु
वे लोने सरोवर
बिन्दुओं में प्रेम के भगवान का
संगीत भर-भर
बोलते थे तुम
अमर रस घोलते थे
तुम हठीले
पर हॄदय-पट तार
हो पाये कभी मेरे न गीले
ना, अजी मैंने
सुने तक भी
नहीं, प्यारे
तुम्हारे बोल
बोल से बढ़कर, बजा, मेरे हृदय में
सुख क्षणों का ढोल
वे तुम्हारे बोल

किंतु
आज जब
तुव युगुल-भुज के
हार का
मेरे हिये में
है नहीं उपहार
आज भावों से भरा वह
मौन है, तव मधुर स्वर सुकुमार
आज मैंने
बीन खोई
बीन-वादक का
अमर स्वर-भार
आज मैं तो
खो चुका
साँसें-उसाँसें
और अपना लाड़ला
उर ज्वार

आज जब तुम
हो नहीं, इस
फूस कुटिया में
कि कसक समेत
’चेत’ की चेतावनी देने
पधारे हिय-स्वभाव अचेत।
और यह क्या
वे तुम्हारे बोल
जिनको वध किया था
पा तुम्हें सुख साथ
कल्पना के रथ चढ़े आये
उठाये तर्जना का हाथ।

आज तुम होते कि
यह वर माँगता हूँ
इस उजड़ती हाट में
घर माँगता हूँ
लौटकर समझा रहे
जी भा रहे तव बोल
बोल पर, जी दूखता है
रहे शत शिर डोल
जब न तुम हो तब
तुम्हारे बोल लौटे प्राण
और समझाने लगे तुम
प्राण हो तुम प्राण
प्राण बोलो वे तुम्हारे बोल
कल्पना पर चढ़
उतर जी पर
कसक में घोल
एक बिरिया
एक विरिया
फिर कहो वे बोल।

कल-कल स्वर में बोल उठी है

नयी-नयी कोपलें, नयी कलियों से करती जोरा-जोरी
चुप बोलना, खोलना पंखुड़ि, गंध बह उठा चोरी-चोरी।

उस सुदूर झरने पर जाकर हरने के दल पानी पीते
निशि की प्रेम-कहानी पीते, शशि की नव-अगवानी पीते।

उस अलमस्त पवन के झोंके ठहर-ठहर कैसे लहाराते
मानो अपने पर लिख-लिखकर स्मृति की याद-दिहानी लाते।

बेलों से बेलें हिलमिलकर, झरना लिये बेखर उठी हैं
पंथी पंछी दल की टोली, विवश किसी को टेर उठी है।

किरन-किरन सोना बरसाकर किसको भानु बुलाने आया
अंधकार पर छाने आया, या प्रकाश पहुँचाने आया।

मेरी उनकी प्रीत पुरानी, पत्र-पत्र पर डोल उठी है
ओस बिन्दुओं घोल उठी है, कल-कल स्वर में बोल उठी है।

हाँ, याद तुम्हारी आती थी

हाँ, याद तुम्हारी आती थी
हाँ, याद तुम्हारी भाती थी
एक तूली थी, जो पुतली पर
तसवीर सी खींचे जाती थी।

कुछ दूख सी जी में उठती थी
मैं सूख सी जी में उठती थी
जब तुम न दिखाई देते थे
मनसूबे फीके होते थे।

पर ओ, प्रहर-प्रहर के प्रहरी
ओ तुम, लहर-लहर के लहरी
साँसत करते साँस-साँस के
मैंने तुमको नहीं पुकारा।

तुम पत्ती-पत्ती पर लहरे
तुम कली-कली में चटख पड़े
तुम फूलों-फूलों पर महके
तुम फलों-फलों में लटक पड़े।

जी के झुरमुट से झाँक उठे
मैंने मति का आँचल खींचा
मुझको ये सब स्वीकार हुए
आँखें ऊँची, मस्तक नीचा।

पर ओ राह-राह के राही
छू मत ले तेरी छल-छाँही
चीख पड़ी मैं यह सच है, पर
मैंने तुमको नहीं पुकारा।

तुम जाने कुछ सोच रहे थे
उस दिन आँसू पोंछ रहे थे
अर्पण की हव दरस लालसा
मानो स्वयं दबोच रहे थे।

अनचाही चाहों से लूटी
मैं इकली, बेलाख, कलूटी
कसकर बाँधी आनें टूटीं
दिखें, अधूरी तानें टूटीं।

पर जो छंद-छंद के छलिया
ओ तुम, बंद-बंद के बन्दी
सौ-सौ सौगन्धों के साथी
मैंने तुमको नहीं पुकारा।

तुम धक-धक पर नाच रहे हो
साँस-साँस को जाँच रहे हो
कितनी अलः सुबह उठती हूँ
तुम आँखों पर चू पड़ते हो।

छिपते हो, व्याकुल होती हूँ
गाते हो, मर-मर जाती हूँ
तूफानी तसवीर बनें, आँखों
आये, झर-झर जाती हूँ।

पर ओ खेल-खेल के साथी
बैरन नेह-जेल के साथी
निज तसवीर मिटा देने में
आँखों की उंडेल के साथी
स्मृति के जादू भरे पराजय।
मैंने तुमको नहीं पुकारा।

जंजीरें हैं, हथकड़ियाँ हैं
नेह सुहागिन की लड़ियाँ हैं
काले जी के काले साजन
काले पानी की घड़ियाँ हैं।

मत मेरे सींखचे बन जाओ
मत जंजीरों को छुमकाओ
मेरे प्रणय-क्षणों में साजन
किसने कहा कि चुप-चुप आओ।

मैंने ही आरती सँजोई
ले-ले नाम प्रार्थना बोली
पर तुम भी जाने कैसे हो
मैंने तुमको नहीं पुकारा।

बेटी की विदा

आज बेटी जा रही है
मिलन और वियोग की दुनिया नवीन बसा रही है।

मिलन यह जीवन प्रकाश
वियोग यह युग का अँधेरा
उभय दिशि कादम्बिनी, अपना अमृत बरसा रही है।

यह क्या, कि उस घर में बजे थे, वे तुम्हारे प्रथम पैंजन
यह क्या, कि इस आँगन सुने थे, वे सजीले मृदुल रुनझुन
यह क्या, कि इस वीथी तुम्हारे तोतले से बोल फूटे
यह क्या, कि इस वैभव बने थे, चित्र हँसते और रूठे।

आज यादों का खजाना, याद भर रह जायगा क्या
यह मधुर प्रत्यक्ष, सपनों के बहाने जायगा क्या।

गोदी के बरसों को धीरे-धीरे भूल चली हो रानी
बचपन की मधुरीली कूकों के प्रतिकूल चली हो रानी
छोड़ जाह्नवी कूल, नेहधारा के कूल चली चली हो रानी
मैंने झूला बाँधा है, अपने घर झूल चली हो रानी

मेरा गर्व, समय के चरणों पर कितना बेबस लोटा है
मेरा वैभव, प्रभु की आज्ञा पर कितना, कितना छोटा है
आज उसाँस मधुर लगती है, और साँस कटु है, भारी है
तेरे विदा दिवस पर, हिम्मत ने कैसी हिम्मत हारी है।

कैसा पागलपन है, मैं बेटी को भी कहता हूँ बेटा
कड़ुवे-मीठे स्वाद विश्व के स्वागत कर, सहता हूँ बेटा
तुझे विदाकर एकाकी अपमानित-सा रहता हूँ बेटा
दो आँसू आ गये, समझता हूँ उनमें बहता हूँ बेटा

बेटा आज विदा है तेरी, बेटी आत्मसमर्पण है यह
जो बेबस है, जो ताड़ित है, उस मानव ही का प्रण है यह।

सावन आवेगा, क्या बोलूँगा हरियाली से कल्याणी
भाई-बहिन मचल जायेंगे, ला दो घर की, जीजी रानी
मेंहदी और महावर मानो सिसक सिसक मनुहार करेंगी
बूढ़ी सिसक रही सपनों में, यादें किसको प्यार करेंगी

दीवाली आवेगी, होली आवेगी, आवेंगे उत्सव
’जीजी रानी साथ रहेंगी’ बच्चों के? यह कैसे सम्भव?

भाई के जी में उट्ठेगी कसक, सखी सिसकार उठेगी
माँ के जी में ज्वार उठेगी, बहिन कहीं पुकार उठेगी।

तब क्या होगा झूमझूम जब बादल बरस उठेंगे रानी
कौन कहेगा उठो अरुण तुम सुनो, और मैं कहूँ कहानी।

कैसे चाचाजी बहलावें, चाची कैसे बाट निहारें
कैसे अंडे मिलें लौटकर, चिडियाँ कैसे पंख पसारे।

आज वासन्ती दृगों बरसात जैसे छा रही है।
मिलन और वियोग की दुनियाँ नवीन बसा रही है।

आज बेटी जा रही है।

कैसी है पहिचान तुम्हारी

कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।

पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया

धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही
तुम खिलते हो तो खिलते हो
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो

किरणों प्रकट हुए, सूरज के
सौ रहस्य तुम खोल उठे से
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से

काँच-कलेजे में भी करुणा
के डोरे ही से खिलते हो
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो

प्रणय और पुरुषार्थ तुम्हारा
मनमोहिनी धरा के बल हैं
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब
तेरी ही छाया के छल हैं

प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये
जो बलि के फूलों खिलते हो
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो

रोटियों की जय

राम की जय पर खड़ी है रोटियों की जय
त्याग कि कहने लग गया लँगोटियों की जय
हाथ के तज काम हों आदर्श के बस काम
राम के बस काम क्यों? हों काम के बस राम।

अन्ध-भाषा अन्ध-भावों से भरा हो देश
ईश का सिर झुक रहा हो रूढ़ि के आदेश
प्रेम का वध ही जहाँ हो धर्म का व्यवसाय
जब हिमायत ही बनी हो श्रेष्ठता का न्याय

भूत कुछ पचता न हो, भावी न रुचता हाय
क्यों न वह युग वर्तमानों में पड़ा मर जाय?
जब कलम रचने लगी नव-नवल-कुंभीपाक
तीन से अनगिनित पत्ते जन रहा जब ढाक।

जब कि वाणी-कामिनी, नित पहिन घुँघुरू यार
गूँजती मेले लगा कर अन्नदाता-द्वार
उस दिवस, क्या कह उठे तुम साधना क्या मोह
माँगने दो आज पीढ़ी को सखे विद्रोह

आज मीठे कीच में ऊगे प्रलय की बेल
कलम कर कर उठे, फूलें, सिर चढों का खेल
प्रणय-पथ मिलने लगें अब प्रलय-पथ से दौड़
सूलियों पर ऊगने में युग लगाये होड़

ज्वार से? ना ना किसी तलवार से सिर जाय
प्यार से सिर आय तो ललकार दो सिर जाय।।

जलियाँ वाला की वेदी

नहीं लिया हथियार हाथ में, नहीं किया कोई प्रतिकार
अत्याचार न होने देंगे बस इतनी ही थी मनुहार
सत्याग्रह के सैनिक थे ये, सब सह कर रह कर उपवास
वास बन्दियों मे स्वीकृत था, हृदय-देश पर था विश्वास

मुरझा तन था, निश्वल मन था जीवन ही केवल धन था
मुसलमान हिन्दूपन छोड़ा बस निर्मल अपनापन था।

मंदिर में था चाँद चमकता, मसजिद में मुरली की तान
मक्का हो चाहे वृन्दावन होते आपस में कुर्बान
सूखी रोटी दोनों खाते, पीते थे रावी का जल
मानो मल धोने को पाया, उसने अहा उसी दिन बल

गुरु गोविन्द तुम्हारे बच्चे अब भी तन चुनवाते हैं
पथ से विचलित न हों, मुदित गोली से मारे जाते हैं।

गली-गली में अली-अली की गूँज मचाते हिल-मिलकर
मारे जाते, कर न उठाते, हृदय चढ़ाते खिल-खिल कर
कहो करें क्या, बैठे हैं हम, सुनें मस्त आवाजों को
धो लेवें रावी के जल से, हम इन ताजे घावों को।

रामचन्द्र मुखचन्द्र तुम्हारा घातक से कब कुम्हलाया
तुमको मारा नहीं वीर अपने को उसने मरवाया।

जाओ, जाओ, जाओ प्रभु को, पहुँचाओ स्वदेश-संदेश
“गोली से मारे जाते हैं भारतवासी, हे सर्वेश”।

रामचन्द्र तुम कर्मचन्द्र सुत बनकर आ जाना सानन्द
जिससे माता के संकट के बंधन तोड़ सको स्वच्छन्द।

चिन्ता है होवे न कलंकित हिन्दू धर्म, पाक इस्लाम
गावें दोनों सुध-बुध खोकर या अल्ला, जय जय घनश्याम।

स्वागत है सब जगतीतल का, उसके अत्याचारों का
अपनापन रख कर स्वागत है, उसकी दुर्बल मारो का
हिन्दू-मुसलिम-ऐक्य बनाया स्वागत उन उपहारों का
पर मिटने के दिवस रूप धर आवेंगे त्योहारों का।

गोली को सह जाओ, जाओ प्रिय अब्दुल करीम जाओ
अपनी बीती हुई खुदा तक अपने बन कर पहुँचाओ।

बोल तो किसके लिए मैं

बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?

प्राणों की मसोस, गीतों की
कड़ियाँ बन-बन रह जाती हैं
आँखों की बूँदें बूँदों पर
चढ़-चढ़ उमड़-घुमड़ आती हैं
रे निठुर किस के लिए
मैं आँसुओं में प्यार खोलूँ

बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?

मत उकसा, मेरे मन मोहन कि मैं
जगत-हित कुछ लिख डालूँ
तू है मेरा जगत, कि जग में
और कौन-सा जग मैं पा लूँ
तू न आए तो भला कब
तक कलेजा मैं टटोलूँ

बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?

तुमसे बोल बोलते, बोली
बनी हमारी कविता रानी
तुम से रूठ, तान बन बैठी
मेरी यह सिसकें दीवानी
अरे जी के ज्वार, जी से काढ़
फिर किस तौल तोलूँ

बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?

तुझे पुकारूँ तो हरियातीं
ये आहें, बेलों-तरुओं पर
तेरी याद गूँज उठती है
नभ-मंडल में विहगों के स्वर
नयन के साजन, नयन में
प्राण ले किस तरह डोलूँ

बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?

भर-भर आतीं तेरी यादें
प्रकृति में, बन राम कहानी
स्वयं भूल जाता हूँ, यह है
तेरी याद कि मेरी बानी
स्मरण की जंजीर तेरी
लटकती बन कसक मेरी
बाँधने जाकर बना बंदी
कि किस विधि बंद खोलूँ

बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?

संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं

सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।

बोल-बोल में बोल उठी मन की चिड़िया
नभ के ऊँचे पर उड़ जाना है भला-भला
पंखों की सर-सर कि पवन की सन-सन पर
चढ़ता हो या सूरज होवे ढला-ढला

यह उड़ान, इस बैरिन की मनमानी पर
मैं निहाल, गति रुद्ध नहीं भाती मुझको

सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।

सूरज का संदेश उषा से सुन-सुनकर
गुन-गुनकर, घोंसले सजीव हुए सत्वर
छोटे-मोटे, सब पंख प्रयाण-प्रवीण हुए
अपने बूते आ गये गगन में उतर-उतर

ये कलरव कोमल कण्ठ सुहाने लगते हैं
वेदों की झंझावात नहीं भाती मुझको

सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।

जीवन के अरमानों के काफिले कहीं, ज्यों
आँखों के आँगन से जी घर पहुँच गये
बरसों से दबे पुराने, उठ जी उठे उधर
सब लगने लगे कि हैं सब ये बस नये-नये

जूएँ की हारों से ये मीठे लगते हैं
प्राणों की सौ सौगा़त नहीं भाती मुझको

सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।

ऊषा-सन्ध्या दोनों में लाली होती है
बकवासनि प्रिय किसकी घरवाली होती है
तारे ओढ़े जब रात सुहानी आती है
योगी की निस्पृह अटल कहानी आती है

नीड़ों को लौटे ही भाते हैं मुझे बहुत
नीड़ो की दुश्मन घात नहीं भाती मुझको

सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।

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