सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएं, Subhadra Kumari Chauhan poems in hindi

15 + Famous Subhadra Kumari Chauhan Poems In Hindi

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सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएं Subhadra Kumari Chauhan Poems In Hindi -:

स्मृतियाँ ~

क्या कहते हो? किसी तरह भी
भूलूँ और भुलाने दूँ?
गत जीवन को तरल मेघ-सा
स्मृति-नभ में मिट जाने दूँ?

शान्ति और सुख से ये
जीवन के दिन शेष बिताने दूँ?
कोई निश्चित मार्ग बनाकर
चलूँ तुम्हें भी जाने दूँ?
कैसा निश्चित मार्ग? ह्रदय-धन
समझ नहीं पाती हूँ मैं
वही समझने एक बार फिर
क्षमा करो आती हूँ मैं।

जहाँ तुम्हारे चरण, वहीँ पर
पद-रज बनी पड़ी हूँ मैं
मेरा निश्चित मार्ग यही है
ध्रुव-सी अटल अड़ी हूँ मैं।

भूलो तो सर्वस्व ! भला वे
दर्शन की प्यासी घड़ियाँ
भूलो मधुर मिलन को, भूलो
बातों की उलझी लड़ियाँ।

भूलो प्रीति प्रतिज्ञाओं को
आशाओं विश्वासों को
भूलो अगर भूल सकते हो
आंसू और उसासों को।

मुझे छोड़ कर तुम्हें प्राणधन
सुख या शांति नहीं होगी
यही बात तुम भी कहते थे
सोचो, भ्रान्ति नहीं होगी।

सुख को मधुर बनाने वाले
दुःख को भूल नहीं सकते
सुख में कसक उठूँगी मैं प्रिय
मुझको भूल नहीं सकते।

मुझको कैसे भूल सकोगे
जीवन-पथ-दर्शक मैं थी
प्राणों की थी प्राण ह्रदय की
सोचो तो, हर्षक मैं थी।

मैं थी उज्ज्वल स्फूर्ति, पूर्ति
थी प्यारी अभिलाषाओं की
मैं ही तो थी मूर्ति तुम्हारी
बड़ी-बड़ी आशाओं की।

आओ चलो, कहाँ जाओगे
मुझे अकेली छोड़, सखे!
बंधे हुए हो ह्रदय-पाश में
नहीं सकोगे तोड़, सखे!

वीरों का कैसा हो वसंत ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसंत

फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत

भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का कैसा हो वसंत

गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का कैसा हो वसंत

कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का कैसा हो वसंत

हल्दीघाटी के शिला खण्ड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड
दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
वीरों का कैसा हो वसंत

भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं
फिर हमें बताए कौन हन्त
वीरों का कैसा हो वसंत

राखी की चुनौती ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

बहिन आज फूली समाती न मन में।
तड़ित आज फूली समाती न घन में।।
घटा है न झूली समाती गगन में।
लता आज फूली समाती न बन में।।

कही राखियाँ है, चमक है कहीं पर,
कही बूँद है, पुष्प प्यारे खिले हैं।
ये आई है राखी, सुहाई है पूनो,
बधाई उन्हें जिनको भाई मिले हैं।।

मैं हूँ बहिन किन्तु भाई नहीं है।
है राखी सजी पर कलाई नहीं है।।
है भादो घटा किन्तु छाई नहीं है।
नहीं है ख़ुशी पर रुलाई नहीं है।।

मेरा बन्धु माँ की पुकारो को सुनकर-
के तैयार हो जेलखाने गया है।
छिनी है जो स्वाधीनता माँ की उसको
वह जालिम के घर में से लाने गया है।।

मुझे गर्व है किन्तु राखी है सूनी।
वह होता, ख़ुशी तो क्या होती न दूनी?
हम मंगल मनावें, वह तपता है धूनी।
है घायल हृदय, दर्द उठता है ख़ूनी।।

है आती मुझे याद चित्तौर गढ की,
धधकती है दिल में वह जौहर की ज्वाला।
है माता-बहिन रो के उसको बुझाती,
कहो भाई, तुमको भी है कुछ कसाला?।।

है, तो बढ़े हाथ, राखी पड़ी है।
रेशम-सी कोमल नहीं यह कड़ी है।।
अजी देखो लोहे की यह हथकड़ी है।
इसी प्रण को लेकर बहिन यह खड़ी है।।

आते हो भाई ? पुनः पूछती हूँ
कि माता के बन्धन की है लाज तुमको?

तो बन्दी बनो, देखो बन्धन है कैसा,
चुनौती यह राखी की है आज तुमको।।

साध ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।
भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।

वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर।
बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।

कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल।
पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।

सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों।
तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।

सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन।
हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन।।

रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली।
दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।।

तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान।
निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान।।

समर्पण ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

सूखी सी अधखिली कली है
परिमल नहीं, पराग नहीं।
किंतु कुटिल भौंरों के चुंबन
का है इन पर दाग नहीं॥
तेरी अतुल कृपा का बदला
नहीं चुकाने आई हूँ।
केवल पूजा में ये कलियाँ
भक्ति-भाव से लाई हूँ॥

प्रणय-जल्पना चिन्त्य-कल्पना
मधुर वासनाएं प्यारी।
मृदु-अभिलाषा, विजयी आशा
सजा रहीं थीं फुलवारी॥

किंतु गर्व का झोंका आया
यदपि गर्व वह था तेरा।
उजड़ गई फुलवारी सारी
बिगड़ गया सब कुछ मेरा॥

बची हुई स्मृति की ये कलियाँ
मैं समेट कर लाई हूँ।
तुझे सुझाने, तुझे रिझाने
तुझे मनाने आई हूँ॥

प्रेम-भाव से हो अथवा हो
दया-भाव से ही स्वीकार।
ठुकराना मत, इसे जानकर
मेरा छोटा सा उपहार॥

यह कदम्ब का पेड़ ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।

व्याकुल चाह ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

सोया था संयोग उसे
किस लिए जगाने आए हो?
क्या मेरे अधीर यौवन की
प्यास बुझाने आए हो??

रहने दो, रहने दो, फिर से
जाग उठेगा वह अनुराग।
बूँद-बूँद से बुझ न सकेगी,
जगी हुई जीवन की आग॥

झपकी-सी ले रही
निराशा के पलनों में व्याकुल चाह।
पल-पल विजन डुलाती उस पर
अकुलाए प्राणों की आह॥

रहने दो अब उसे न छेड़ो,
दया करो मेरे बेपीर!
उसे जगाकर क्यों करते हो?
नाहक मेरे प्राण अधीर॥

मातृ-मन्दिर ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

वीणा बज-सी उठी, खुल गए नेत्र
और कुछ आया ध्यान।
मुड़ने की थी देर, दिख पड़ा
उत्सव का प्यारा सामान ।।

जिनको तुतला-तुतला करके
शुरू किया था पहली बार।
जिस प्यारी भाषा में हमको
प्राप्त हुआ है माँ का प्यार ।।

उस हिन्दू जन की गरीबिनी
हिन्दी प्यारी हिन्दी का।
प्यारे भारतवर्ष -कृष्ण की
उस प्यारी कालिन्दी का ।।

है उसका ही समारोह यह
उसका ही उत्सव प्यारा।
मैं आश्चर्य-भरी आँखों से
देख रही हूँ यह सारा ।।

जिस प्रकार कंगाल-बालिका
अपनी माँ धनहीना को।
टुकड़ों की मोहताज़ आजतक
दुखिनी को उस दीना को ।।

सुन्दर वस्त्राभूषण-सज्जित,
देख चकित हो जाती है।
सच है या केवल सपना है,
कहती है, रुक जाती है ।।

पर सुन्दर लगती है, इच्छा
यह होती है कर ले प्यार ।
प्यारे चरणों पर बलि जाए
कर ले मन भर के मनुहार ।।

इच्छा प्रबल हुई, माता के
पास दौड़ कर जाती है ।
वस्त्रों को सँवारती उसको
आभूषण पहनाती है ।

उसी भाँति आश्चर्य मोदमय,
आज मुझे झिझकाता है ।
मन में उमड़ा हुआ भाव बस,
मुँह तक आ रुक जाता है ।।

प्रेमोन्मत्ता होकर तेरे पास
दौड़ आती हूँ मैं ।
तुझे सजाने या सँवारने
में ही सुख पाती हूँ मैं ।।

तेरी इस महानता में,
क्या होगा मूल्य सजाने का ?
तेरी भव्य मूर्ति को नकली
आभूषण पहनाने का ?

किन्तु हुआ क्या माता ! मैं भी
तो हूँ तेरी ही सन्तान ।
इसमें ही सन्तोष मुझे है
इसमें ही आनन्द महान ।।

मुझ-सी एक-एक की बन तू
तीस कोटि की आज हुई ।
हुई महान, सभी भाषाओं
की तू ही सरताज हुई ।।

मेरे लिए बड़े गौरव की
और गर्व की है यह बात ।
तेरे ही द्वारा होवेगा,
भारत में स्वातन्त्रय-प्रभात ।।

असहयोग पर मर-मिट जाना
यह जीवन तेरा होगा ।
हम होंगे स्वाधीन, विश्व का
वैभव धन तेरा होगा ।।

जगती के वीरों-द्वारा
शुभ पदवन्दन तेरा होगा
देवी के पुष्पों द्वारा
अब अभिनन्दन तेरा होगा ।।

तू होगी आधार, देश की
पार्लमेण्ट बन जाने में ।
तू होगी सुख-सार, देश के
उजड़े क्षेत्र बसाने में ।।

तू होगी व्यवहार, देश के
बिछड़े हृदय मिलाने में ।
तू होगी अधिकार, देशभर
को स्वातन्त्रय दिलाने में ।।

तुम ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

जब तक मैं मैं हूँ, तुम तुम हो,
है जीवन में जीवन।
कोई नहीं छीन सकता
तुमको मुझसे मेरे धन॥

आओ मेरे हृदय-कुंज में
निर्भय करो विहार।
सदा बंद रखूँगी
मैं अपने अंतर का द्वार॥

नहीं लांछना की लपटें
प्रिय तुम तक जाने पाएँगीं।
पीड़ित करने तुम्हें
वेदनाएं न वहाँ आएँगीं॥

अपने उच्छ्वासों से मिश्रित
कर आँसू की बूँद।
शीतल कर दूँगी तुम प्रियतम
सोना आँखें मूँद॥

जगने पर पीना छक-छककर
मेरी मदिरा की प्याली।
एक बूँद भी शेष
न रहने देना करना खाली॥

नशा उतर जाए फिर भी
बाकी रह जाए खुमारी।
रह जाए लाली आँखों में
स्मृतियाँ प्यारी-प्यारी॥

विदा ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

अपने काले अवगुंठन को
रजनी आज हटाना मत।
जला चुकी हो नभ में जो
ये दीपक इन्हें बुझाना मत॥

सजनि! विश्व में आज
तना रहने देना यह तिमिर वितान।
ऊषा के उज्ज्वल अंचल में
आज न छिपना अरी सुजान॥

सखि! प्रभात की लाली में
छिन जाएगी मेरी लाली।
इसीलिए कस कर लपेट लो,
तुम अपनी चादर काली॥

किसी तरह भी रोको, रोको,
सखि! मुझ निधनी के धन को।
आह! रो रहा रोम-रोम
फिर कैसे समझाऊँ मन को॥

आओ आज विकलते
जग की पीड़ाएं न्यारी-न्यारी।
मेरे आकुल प्राण जला दो,
आओ तुम बारी-बारी॥

ज्योति नष्ट कर दो नैनों की,
लख न सकूँ उनका जाना।
फिर मेरे निष्ठुर से कहना,
कर लें वे भी मनमाना॥

जलियाँवाला बाग में बसंत ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।

किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।

कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

आराधना ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

जब मैं आँगन में पहुँची,
पूजा का थाल सजाए।
शिवजी की तरह दिखे वे,
बैठे थे ध्यान लगाए॥

जिन चरणों के पूजन को
यह हृदय विकल हो जाता।
मैं समझ न पाई, वह भी
है किसका ध्यान लगाता?

मैं सन्मुख ही जा बैठी,
कुछ चिंतित सी घबराई।
यह किसके आराधक हैं,
मन में व्याकुलता छाई॥

मैं इन्हें पूजती निशि-दिन,
ये किसका ध्यान लगाते?
हे विधि! कैसी छलना है,
हैं कैसे दृश्य दिखाते??

टूटी समाधि इतने ही में,
नेत्र उन्होंने खोले।
लख मुझे सामने हँस कर
मीठे स्वर में वे बोले॥

फल गई साधना मेरी,
तुम आईं आज यहाँ पर।
उनकी मंजुल-छाया में
भ्रम रहता भला कहाँ पर॥

अपनी भूलों पर मन यह
जाने कितना पछताया।
संकोच सहित चरणों पर,
जो कुछ था वही चढ़ाया॥

ठुकरा दो या प्यार करो ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं

धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं

मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं

कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आयी

पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो

राखी ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं
राखी अपनी, यह लो आज।
कई बार जिसको भेजा है
सजा-सजाकर नूतन साज।।

लो आओ, भुजदण्ड उठाओ
इस राखी में बँध जाओ।
भरत – भूमि की रजभूमि को
एक बार फिर दिखलाओ।।

वीर चरित्र राजपूतों का
पढ़ती हूँ मैं राजस्थान।
पढ़ते – पढ़ते आँखों में
छा जाता राखी का आख्यान।।

मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी
जब-जब राखी भिजवाई।
रक्षा करने दौड़ पड़ा वह
राखी – बन्द – शत्रु – भाई।।

किन्तु देखना है, यह मेरी
राखी क्या दिखलाती है ।
क्या निस्तेज कलाई पर ही
बँधकर यह रह जाती है।।

देखो भैया, भेज रही हूँ
तुमको-तुमको राखी आज ।
साखी राजस्थान बनाकर
रख लेना राखी की लाज।।

हाथ काँपता, हृदय धड़कता
है मेरी भारी आवाज़।
अब भी चौक-चौक उठता है
जलियाँ का वह गोलन्दाज़।।

यम की सूरत उन पतितों का
पाप भूल जाऊँ कैसे?
अँकित आज हृदय में है
फिर मन को समझाऊँ कैसे?

बहिनें कई सिसकती हैं हा !
सिसक न उनकी मिट पाई ।
लाज गँवाई, ग़ाली पाई
तिस पर गोली भी खाई।।

डर है कहीं न मार्शल-ला का
फिर से पड़ जावे घेरा।
ऐसे समय द्रौपदी-जैसा
कृष्ण ! सहारा है तेरा।।

बोलो, सोच-समझकर बोलो,
क्या राखी बँधवाओगे?
भीर पडेगी, क्या तुम रक्षा
करने दौड़े आओगे?

यदि हाँ तो यह लो मेरी
इस राखी को स्वीकार करो।
आकर भैया, बहिन ‘सुभद्रा’
के कष्टों का भार हरो।।

उपेक्षा ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

इस तरह उपेक्षा मेरी,
क्यों करते हो मतवाले
आशा के कितने अंकुर,
मैंने हैं उर में पाले॥

विश्वास-वारि से उनको,
मैंने है सींच बढ़ाए।
निर्मल निकुंज में मन के,
रहती हूँ सदा छिपाए॥

मेरी साँसों की लू से
कुछ आँच न उनमें आए।
मेरे अंतर की ज्वाला
उनको न कभी झुलसाए॥

कितने प्रयत्न से उनको,
मैं हृदय-नीड़ में अपने
बढ़ते लख खुश होती थी,
देखा करती थी सपने॥

इस भांति उपेक्षा मेरी
करके मेरी अवहेला
तुमने आशा की कलियाँ
मसलीं खिलने की बेला॥

मेरा नया बचपन ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘माँ, काओ’।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

परिचय ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

क्या कहते हो कुछ लिख दूँ मैं
ललित-कलित कविताएं।
चाहो तो चित्रित कर दूँ
जीवन की करुण कथाएं॥

सूना कवि-हृदय पड़ा है,
इसमें साहित्य नहीं है।
इस लुटे हुए जीवन में,
अब तो लालित्य नहीं है॥

मेरे प्राणों का सौदा,
करती अंतर की ज्वाला।
बेसुध-सी करती जाती,
क्षण-क्षण वियोग की हाला॥

नीरस-सा होता जाता,
जाने क्यों मेरा जीवन।
भूली-भूली सी फिरती,
लेकर यह खोया-सा मन॥

कैसे जीवन की प्याली टूटी,
मधु रहा न बाकी?
कैसे छुट गया अचानक
मेरा मतवाला साकी??

सुध में मेरे आते ही
मेरा छिप गया सुनहला सपना।
खो गया कहाँ पर जाने?
जीवन का वैभव अपना॥

क्यों कहते हो लिखने को,
पढ़ लो आँखों में सहृदय।
मेरी सब मौन व्यथाएं,
मेरी पीड़ा का परिचय॥

प्रभु तुम मेरे मन की जानो ~ Subhadra Kumari Chauhan Poems

मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥

इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ।
तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥
तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो।
जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥

मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ।
और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥
मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है।
मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥

तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा?
हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा?
मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती।
बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥

कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है।
दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥
मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला।
यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥

यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक अब सह न सकूँगी।
यह झूठा विश्वास, प्रतिष्ठा झूठी, इसमें रह न सकूँगी॥
ईश्वर भी दो हैं, यह मानूँ, मन मेरा तैयार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥

मेरा भी मन है जिसमें अनुराग भरा है, प्यार भरा है।
जग में कहीं बरस जाने को स्नेह और सत्कार भरा है॥
वही स्नेह, सत्कार, प्यार मैं आज तुम्हें देने आई हूँ।
और इतना तुमसे आश्वासन, मेरे प्रभु! लेने आई हूँ॥

तुम कह दो, तुमको उनकी इन बातों पर विश्वास नहीं है।
छुत-अछूत, धनी-निर्धन का भेद तुम्हारे पास नहीं है॥

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