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Important Facts About Soil In Hindi

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मृदा क्या है ?

मृदा धरती पर उपस्थित सम्पूर्ण संसाधनों में से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। मिट्टी से हमें अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से भोजन की प्राप्ति होती है। तथा इसके साथ ही हमें जड़ी बूटी, औषधीय पौधे, इमारती लकड़ी आदि भी प्राप्त होते हैं।

पृथ्वी के पृष्ठ पर दानेदार कणों के आवरण की पतली परत मृदा कहलाती है। यह भूमि से निकटता से जुड़ी हुई है। स्थल रूप मृदा के प्रकार को निर्धारित करते हैं। मृदा का निर्माण चट्टानों से प्राप्त खनिजों और जैव पदार्थ तथा भूमि पर पाए जाने वाले खनिजों से होता है। यह अपक्षय की प्रक्रिया के माध्यम से बनती है। खनिजों और जैव पदार्थों का सही मिश्रण मृदा को उपजाऊ बनाता है।

धरातलीय चट्टानों के अपक्षय, जलवायु, पौधों और करोड़ों भूमिगत कीटाणुओं तथा कृमियों के बीच होने वाले आपसी क्रिया कलाप का अंतिम प्रणाम परिणाम ही मिट्टी है। इन भौतिक, रासायनिक तथा जैविक प्रक्रियाओं के एक लंबी अवधि तक कार्यरत रहने से मिट्टी की पर्तों का निर्माण होता है।

चट्टानों के प्रकार, जमीन की भौतिक विशेषताओं, जलवायु तथा वनस्पतियों आदि के संबंध में एक स्थान और दूसरे स्थान में अंतर होता है। यही कारण है कि पृथ्वी के धरातल पर विभिन्न प्रकार की मिट्टी पाई जाती है। इस भिन्नता के कारण ही हमें विभिन्न प्रकार की फसलें, घास तथा पेड़ पौधे प्राप्त होते हैं। अनुकूल परिस्थितियों में एक से दो सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की परत बनने में लगभग दो शताब्दियां लग जाती हैं।

मिट्टी कई ठोस, तरल और गैसीय पदार्थों का मिश्रण है। यह भूपर्पटी के सबसे ऊपरी भाग में पाई जाती है। इसमें जड़ और चेतन, दोनों तरह के पदार्थ पाए जाते हैं। खनिजों के कण, पौधों के सड़े अंश, कीटाणुओं तथा इनके जैविक पदार्थों पर पलने वाले अनगिनत जीवाणुओं से ही मिट्टी का निर्माण हुआ है।

मिट्टी में जल भी होता है जहां से पौधों की जड़ें आर्द्रता प्राप्त करती हैं। मिट्टी के रंध्रों में हवा भी रहती है जिसमें CO2 की मात्रा अधिक होती है। इसके अतिरिक्त मिट्टी में ऑक्सीजन और नाइट्रोजन भी होता है। मिट्टी में ऊपर बताई गई सभी चीजों का संयोजन ही पौधों को उनके विकास के लिए पोषक तत्व प्रदान करता है। पौधों के सूख जाने या सड़ जाने के बाद उनका पौष्टिक तत्व पुनः मिट्टी में मिल जाता है। और जीवित पौधों द्वारा फिर से इस्तेमाल किया जाता है।

मृदा अपरदन क्या है ?

ढालू भूमि से जल की तेज धारा इस बहुमूल्य मिट्टी को शीघ्र ही बहा सकती है। जिन क्षेत्रों में वनस्पति की कमी होती है वहां तो यह कार्य और भी तेजी से होता है। यदि मिट्टी हल्की और ढीली है तो तेज हवा इसे शीघ्र ही उड़ा कर दूर ले जाएगी। मूसलाधार वर्षा के समय पानी का तेज बहाव ढालू भूमि से मिट्टी की परतों को या तो बहा ले जाता है या उसमें गहरी नालियां बना देता है। इस प्रकार से मिट्टी के नष्ट होने को मृदा अपरदन कहते हैं।

विषुवतीय और उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों के अति वृष्टि वाले और अतिशुष्क क्षेत्रों के बाहर अन्य क्षेत्रों में मृदा अपरदन खास-खास जगहों तक ही सीमित है। यदि मिट्टी एक बार नष्ट हो जाए या पोषक पदार्थों की कमी से बेकार हो जाए तो कृषि और वनस्पति के लिए वह लगभग हमेशा के लिए खत्म हो जाती है। यही कारण है कि मिट्टी को पुनः नवीन न होने वाला संसाधन माना जाता है। भारत में गंगा के मैदान जैसी समतल भूमि पर यदि कृषि की सही विधियां नहीं अपनाई गई तो यहां की मिट्टी के पोषक पदार्थ नष्ट हो जाएंगे। और इसकी उत्पादन क्षमता कम हो जाएगी।

मृदा समाज की प्रक्रियाओं और संचालन के लिए जरूरी है। अधिकांश मानव बस्तियां उन्हीं क्षेत्रों में मिलती हैं जहां अच्छी, गहरी और उपजाऊ मृदा उपलब्ध है। इस प्रकार के मुख्य क्षेत्र समशीतोष्ण कटिबंधीय घास के मैदान, नदियों के जलोढ़ मैदान तथा समुद्र तटीय मैदान हैं। इसके विपरित पर्वतीय और पहाड़ी ढालों पर स्थित छिछली तथा अनुपजाऊ मिट्टी खेतों के लिए बहुत ही कम महत्व की होती है।

मृदा परिच्छेदिका क्या है ?

मृदा परिच्छेदिका में चट्टानों से प्राप्त अपशिष्ट पदार्थ ही होते हैं किंतु आधारी चट्टान, जिस पर मिट्टी जमा होती है स्वयं इस परिच्छेदिका का हिस्सा नहीं होती। इस परिच्छेदिका में क्षैतिज परतें भी नहीं होती। जिन्हें संस्तर – स्थिति ( होराइजंस ) कहते हैं। वास्तविक मृदा परिच्छेदिका का विकास तब होता है जब अपक्षयित पदार्थ बहुत अरसे तक एक ही स्थान पर पड़े रहें।

मृदा परिच्छेदिका में क्रमश: तीन मुख्य संस्तर स्थितियां होती हैं। वास्तविक मृदा सबसे ऊपर होती है। उसके नीचे उप मृदा होती है। तथा सबसे नीचे आधारी चट्टान पाई जाती है। भौतिक और रासायनिक संघटन तथा जैविक अंश के आधार पर मृदा का प्रत्येक संस्तर दूसरे संस्तरों से बिल्कुल भिन्न होता है।

मृदा के भौतिक गुण क्या हैं ? -:

प्रत्येक प्रकार की मिट्टी में रंग, गठन और संरचना सदृश मृदा के भौतिक गुण/ मिट्टी के भौतिक गुण होते हैं। रंग महत्वपूर्ण नहीं होता है किंतु इससे पता चलता है कि मिट्टी का निर्माण किस वस्तु से हुआ है और कैसे हुआ है। मिट्टी के गठन से उसमें मिश्रित विभिन्न आकार प्रकार के कणों का पता चलता है जैसे बजरी, बालू, चिकनी मिट्टी तथा गाद।

मिट्टी में जब बालू के कणों का अनुपात अधिक होता है तो इसे बलुई मिट्टी कहते हैं। चिकनी मिट्टी में मृत्तिका का अनुपात अधिक होता है और बालू के कण कम होते हैं।

वह मिट्टी जिसमें मृत्तिका, बालू और गाद के अनुपात लगभग बराबर होते हैं। उस दोमट मिट्टी कहा जाता है। दोमट मिट्टी को बालू, मृत्तिका और गाद की अधिकता के आधार पर क्रमश: बलुई दोमट, मृत्तिका दोमट और गाद दोमट कहते हैं।

बलुई मिट्टी में रंध्र बड़े होते हैं अतः इसमें जल का रिसाव तेज होता है। दोमट मिट्टी, जिसमें तीनों का मिश्रण होता है, पौधों की उपज के लिए सबसे अच्छी होती है। इसकी जुताई भी आसान होती है। जुताई के उद्देश्य से बलुई मिट्टी को हल्की और स्थान बदलने वाली समझा जाता है। जबकि चिकनी मिट्टी को भारी मिट्टी कहते हैं। यह भीगने पर चिपचिपी और सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं।

मिट्टी की संरचना इसके कणों के समुहन के आधार पर दानेदार, भुरभुरी, खंडी, चपटी, प्लास्टिक या स्तंभी हो सकती है। इसकी संरचना मृदा के अपरदन, उसकी जुताई में आसानी या कठिनाई तथा उसकी नमी सोखने की क्षमता को प्रभावित करती है।

मृदा के रासायनिक गुण क्या हैं ? -:

मिट्टी के अलग-अलग प्रकारों के अपने रासायनिक गुण होते हैं। जिस मिट्टी में चूने की मात्रा कम होती है उसे अम्लीय तथा जिसमें ज्यादा होती है उसे क्षारीय या उदासीन मिट्टी कहते हैं।

मिट्टी में उपस्थित जल में कार्बन डाइऑक्साइड तथा जीवाणुओं के सड़ने से उत्पन्न अम्ल के अंश घुले रहते हैं। जीवों और वनस्पतियों के सड़े अवशेषों से ही ह्यूमस का निर्माण होता है। जिससे मिट्टी का रंग काला या गाढ़ा भूरा हो जाता है। किसी छोटे क्षेत्र में भी एक स्थान और दूसरे स्थान की मिट्टी के भौतिक व रासायनिक गुणों में काफी अंतर पाया जाता है।

मृदा निर्माण की प्रक्रिया क्या हैं ? -:

मृदा निर्माण के मुख्य कारक जनक शैल का स्वरूप और जलवायविक कारक हैं। मृदा निर्माण के अन्य कारक स्थलाकृति, जैव पदार्थों की भूमिका और मृदा निर्माण के संघटन में लगा समय है। अलग-अलग स्थानों में ये भिन्न-भिन्न होते हैं।

मृदा निर्माण के पांच कारक निम्नलिखित हैं -:

  1. आधारी चट्टान या जनक पदार्थ
  2. स्थानीय जलवायु
  3. जैविक पदार्थ
  4. ऊंचाई और उच्चावच अर्थात स्थलाकृति
  5. मिट्टी के विकास की अवधि

जलवायु और जैविक कारकों को क्रियाशील कारक कहते हैं। जबकि जनक पदार्थ, स्थलाकृति और विकास की अवधि को निष्क्रिय कारक कहते हैं।

मिट्टी के नीचे स्थित चट्टानी संस्तर को जनक पदार्थ कहते हैं। जनक पदार्थ विखंडित होकर यांत्रिक, रासायनिक तथा जैविक कारकों के प्रभाव से धीरे-धीरे अपक्षयित होते रहते हैं।

मिट्टी में अजैविक खनिज कण जनक पदार्थ से ही मिलते हैं। यह सबसे ज्यादा अवसादी चट्टानों से प्राप्त होते हैं। यांत्रिक तथा रासायनिक विधियों से होने वाले अपक्षय की दरों में अंतर होता है। और यह चट्टानी संरचना, उसकी कठोरता और जलवायु पर निर्भर करता है। इन्हीं गुणों के कारण शैल जैसी चट्टानें बढ़िया मृदा उत्पादक तथा चूना पत्थर जैसी चट्टाने घटिया मृदा उत्पादक हैं। अपक्षय की गति जितनी अधिक होगी ( जैसा कि उष्ण और आर्द्र जलवायु प्रदेशों में होता है ) उतनी ही तेज गति से मृदा का निर्माण होगा।

मृदा निर्माण में जलवायु इतना प्रमुख कारक है की एक लंबी अवधि में जनक पदार्थों के कारण उत्पन्न विभिन्नताओं को यह बहुत हद तक कम कर देती है। अतः एक ही जलवायु वाले क्षेत्र में दो भिन्न प्रकार के जनक पदार्थ एक ही प्रकार की मिट्टी का निर्माण कर सकते हैं। ठीक उसी प्रकार, एक ही तरह के जनक पदार्थ दो भिन्न जलवायु प्रदेशों में दो भिन्न प्रकार की मिट्टी विकसित कर सकते हैं। रवेदार ग्रेनाइट चट्टानें, मानसूनी प्रदेश के आर्द्र भागों में लैटेराइट मिट्टी का और शुष्क किनारों पर लैटेराइट से भिन्न प्रकार की मिट्टी का निर्माण करती है।

ग्रीष्म ऋतु की तेज गर्मी और कम वर्षा से काली मिट्टी का निर्माण होता है जिस पर जनक पदार्थों का कोई खास असर नहीं होता है। इस तरह की मिट्टी तमिलनाडु के कुछ जिलों में पाई जाती है। थार के मरुस्थल में ग्रेनाइट और बालू पत्थर दोनों से ही शुष्क जलवायु के कारण बलुई मिट्टी का निर्माण होता है। इस मिट्टी में जैविक पदार्थ बहुत ही कम मात्रा में होते हैं।

वनस्पति और जीव जैसे- पेड़, झाड़ियां, घास, काई, जीवाणु तथा जानवर आदि किसी नई मिट्टी को प्रौढ़ावस्था में बदलने में प्रमुख भूमिका अदा करते हैं। मृत पौधे मिट्टी को ह्यूमस से भरपूर बनाते हैं। जो जीवाणुओं जैसे सूक्ष्म जीवों द्वारा उपभोग किए जाते हैं। आर्द्र उष्णकटिबंधीय जलवायु में जीवाणुओं का कार्य इतना तेज होता है कि वे ह्यूमस के अधिकांश भाग का उपयोग कर लेते हैं। जिससे मिट्टी की उर्वरता कम हो जाती है।

ठंडी जलवायु में जीवाणुओं की कार्यकुशलता सीमित हो जाती है। अतः मिट्टी में ह्यूमस की मात्रा अधिक होती है। यह जीवाणु हवा के नाइट्रोजन को किसी ऐसे रासायनिक यौगिक में बदल देते हैं जिसका उपयोग पौधे कर सकें। इसीलिए जीवाणुओं को नाइट्रोजन यौगिकीकरण का कारक कहते हैं।

ह्यूमस मिट्टी को उर्वरक बनाता है। और खनिजों का अपक्षय तथा मिट्टी बनने की प्रक्रिया को तेज करता है। कृमि सदृश सूक्ष्म जीव करोड़ों की संख्या में मिट्टी में रहते हैं। यह मिट्टी के कणों को महीन बनाते हैं। चींटी, चूहे, दीमक तथा कुछ पक्षी जैसे जीव जो बिल बनाते हैं वह धरातलीय मिट्टी को ऊपर से नीचे और उपमृदा को नीचे से ऊपर करते रहते हैं।

स्थलाकृति भी मिट्टी के जमाव, उसके अपरदन तथा जल प्रवाह की गति पर प्रभाव डालती है। तीव्र ढाल वाली चट्टान पर एक पतली परत वाली मोटी मिट्टी बनती है जिसे अवशिष्ट मृदा कहते हैं। पहाड़ी ढालों से अधिकांश मिट्टी नदी, हिमानी तथा पवन द्वारा परिवहित होकर जलोढ़ के रूप में नदी घाटियों के तल पर अथवा समतल भूमि पर पहुंच जाती है। इस प्रकार की परिवहित मिट्टी बड़ी उपजाऊ होती है।

नदियों की ताजी जलोढ़ मिट्टी और हिमानी द्वारा निक्षेपित गोलाश्मी मिट्टी युवावस्था की मिट्टियां हैं। प्रौढ़ मिट्टियों का विकास एक लंबी अवधि के बाद हो पाता है। इनमें जलवायु और जैविक पदार्थों का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। इनमें मृदा परिच्छेदिका भी पूर्णत: विकसित होती है।
इससे समय रूपी कारक का प्रभाव समझ में आता है। समय ही युवा मिट्टी को प्रौढ़ मिट्टी में और प्रौढ़ मिट्टी को वृद्धावस्था में बदलता है। इस प्रकार के परिवर्तन के साथ मिट्टी के भौतिक और रासायनिक गुणों तथा उर्वरता में भी परिवर्तन होता है।

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मृदा के प्रकार क्या हैं ? मिट्टी कितने प्रकार की होती हैं ? ( Types of soil in Hindi ) -:

मिट्टी / मृदा के प्रकार निम्नलिखित हैं।

  • प्रायद्वीपीय मिट्टियां
  • हिमालय की मिट्टियां
  • मैदान की मिट्टियां
  • अन्य मिट्टियां

1. प्रायद्वीपीय मिट्टियां -:

भारत का प्रायद्वीपीय भाग प्राचीन गोंडवाना लैंड का भाग है। इसलिए प्रायद्वीपीय मिट्टियां प्राचीन चट्टानों से निर्मित हैं। और इसी वजह से यहां की मृदा पुरानी है। रंग और संरचना के आधार पर प्रायद्वीपीय मिट्टियों को निम्न लिखित भागों में बांटा जा सकता है।

~ काली मिट्टी -:

लावा प्रवाह से बनी ज्वालामुखीय शैलों से निर्मित मृदा को काली मिट्टी कहते हैं। इसे रेगुर या रेगड़ मिट्टी भी कहते हैं। इस किस्म की मिट्टी में लोहा, एल्यूमिनियम, चूना और मैग्नेशियम की अधिकता पाई जाती है। काली मिट्टी विशेष रूप से गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्यप्रदेश, दक्षिण ओडीशा, कर्नाटक के उत्तरी जिलों, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और राजस्थान तथा उत्तर-प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में मिलती है।

काली मिट्टी की विशेषता यह है कि यह अत्यधिक काली, मटियारी और महीन कणों वाली होती है और बिना खाद के भी यह हजारों वर्षों तक उपजाऊ बनी रहती है। यह मृत्तिकामय मिट्टी है जो नमी को लंबे समय तक संजोए रखती है। ये मिट्टियां गीली हो जाने पर अत्यधिक चिपचिपी हो जाती हैं| और सूखने पर इसमें लम्बी और गहरी दरारें पड़ जाती हैं। काली मिट्टी कपास की खेती के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। इसलिए इसे कपासवाली मिट्टी भी कहा जाता है। इसके अलावा गेहूं, ज्वार, बाजरा और मूंगफली आदि फसलें भी इस मिट्टी में उगाई जाती हैं।

काली मिट्टी में टिटैनिफेरस मैग्नेटाइट तथा जीवाष्म की उपस्तिथि के कारण इसका रंग काला होता है।

~ लाल व पीली मिट्टियां -:

इस मिट्टी का निर्माण जलवायविक परिवर्तनों के कारण रवेदार और कायांतरित शेलों जैसे ग्रेनाइट, नीस और शिष्ट जैसी पुरानी चट्टानों के विघटन और वियोजन से हुआ है। लाल मिट्टी में लौह ऑक्साइड की उपस्तिथि के कारण इसका रंग लाल होता है। तथा जलयोजित रूप में यह पीली दिखाई देने लगती है। यह मिट्टी छोटा नागपुर के पठार, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, मेघालय, नागालैंड तथा मध्यप्रदेश में पाई जाती है।

इसमें चूना, फेरस ऑक्साइड और पोटाश की मात्रा कम होती है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और सड़े-गले जीवाष्म की भी कमी होती है। इस मृदा को उर्वरता विहीन और बंजर भूमि के रूप में माना जाता है। परंतु उर्वरकों की सहायता से इसमें अच्छी फसलें उगाई जा सकती हैं। लाल मिट्टी साधारण मिट्टी होने के कारण विविध फसलें उत्पन्न करती है। यथा- ज्वार, बाजरा कपास, दलहन, रागी और साग सब्जियां आदि।

~ लैटेराइट मिट्टी -:

इस मिट्टी का निर्माण मानसूनी जलवायु की आर्द्रता और शुष्कता में परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न विशिष्ट स्थितियों में होता है।

लैटेराइट मिट्टी के निम्नलिखित प्रकार हैं ।

  • गहरी लाल लैटेराइट मिट्टी
  • सफेद लैटेराइट मिट्टी
  • भूमिगत जलवायी लैटेराइट मिट्टी

गहरी लाल लैटेराइट मिट्टी में लौह ऑक्साइड और पोटाश की अधिकता होती है। इसकी उर्वरता कम होती है।

सफेद लैटेराइट मिट्टी में सफेद रंग केओलिन के कारण होता है। इसकी उर्वरता सबसे कम होती है।

भूमिगत जलवायी लैटेराइट मिट्टी लैटेराइट मिट्टियों में सबसे ज्यादा उपजाऊ होती है। यह मिट्टी पूर्वी और पश्चिमी घाट के क्षेत्रों, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, ओडीशा और पश्चिम बंगाल, मेघालय में मिलती है। यह चाय, काजू, इलायची के उत्पादन के लिए उपयुक्त होती है।

2. हिमालय पर्वत की मिट्टियां -:

हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में मिट्टी बाल्यावस्था में है और यह अपेक्षाकृत पतली, दलदली, तथा छिद्रयुक्त है। इस मृदा को पर्वतीय मृदा कहते हैं।

आग्नेय मिट्टी -:

आग्नेय मिट्टी का निर्माण हिमालय में पाई जाने वाली ग्रेनाइट और डायोराइट नामक आग्नेय चट्टानों द्वारा हुआ है। चूंकि इन मिट्टियों में नमी बनाए रखने की शक्ति मौजूद रहती है, इसलिए इन पर खेती करना सरल होता है।

3. मैदान की मिट्टियां -:

~ जलोढ़ मिट्टी -:

नदियों द्वारा लायी गई निक्षेपित महीन गाद से निर्मित मृदा ही जलोढ़ मृदा कहलाती है। यह विश्व की सबसे अधिक उपजाऊ मृदाओं में से एक है। जलोढ़ दो प्रकार के होते हैं- खादर और बांगर। नई जलोढ़ मिट्टी को खादर मिट्टी कहते हैं। खादर मिट्टी हल्के रंग की तथा अधिक महीन होती है। यह गंगा ब्रह्मपुत्र नदी के डेल्टा क्षेत्र में पाई जाती है। दूसरी ओर, पुरानी जलोढ मिट्टी बांगर मिट्टी कहलाती है। बांगर मिट्टी गहरे रंग की और अपेक्षाकृत मोटी होती है। यह मिट्टी नदी घाटियों के ऊपरी भागों में मिलती है।

जलोढ़ मिट्टी भारत के उत्तरी मैदान और प्रायद्वीपीय भारत की नदियों के डेल्टा क्षेत्र में पाई जाती है। जैसे कि यह गुजरात, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा महानदी, कावेरी, कृष्णा और गोदावरी नदी की घाटियों में मिलती है। यह मिट्टी गेहूं, धान, दलहन, तिलहन, कपास, मक्का, गन्ना और सब्जियों की खेती के लिए उपयुक्त है। भारतीय मैदान के पूर्वी भाग में जलोढ़ मृदा जूट के उत्पादन के लिए भी अनुकूल है।

4. अन्य मिट्टियां -:

~ दोमट मिट्टी -:

दोमट मिट्टी बलुई मिट्टी और चिकनी मिट्टी का मिश्रण है। इस मिट्टी में लगभग 40 प्रतिशत सिल्ट, 20 प्रतिशत चिकनी मिट्टी तथा शेष 40 प्रतिशत बालू होता है। इस मिट्टी में हवा और पानी को छानने तथा जल-निकास की बेहतर क्षमता होती है। पानी तथा वायु के प्रवेश हेतु अधिक छिद्रिल होने के कारण इस मिट्टी में फ़सलों के लिए उर्वरा शक्ति अधिक होती है। दोमट मिट्टी बाग़वानी तथा कृषि कार्यों के लिए उत्तम मानी जाती है। इस मिट्टी में पोषक पदार्थों की मात्रा भी अधिक होती है।

~ मरुस्थलीय मिट्टी -:

राजस्थान और गुजरात के मरुस्थलीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली बलुई मिट्टी को रेगिस्तानी मिट्टी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। मरुस्थलीय मिट्टी में घुलनशील नमक की मात्रा उच्च होती है, परंतु इसमें जैव पदार्थों की कमी होती है।

~ दलदली मिट्टियां -:

अधिक दिनों तक पानी जमा रहने और वनस्पतियों के सड़ने के बाद जो मिट्टी बनती है, वह दलदली मिट्टी कहलाती है। ये मिट्टियां सामान्यतः नीले रंग की होती है, क्योंकि इसमें जीवांश और लोहे का अंश प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। ये मिट्टी मुख्य रूप से ओडीशा के समुद्रतटवर्ती प्रदेश, पश्चिम बंगाल में सुंदरवन, उत्तरी बिहार के मध्यवर्ती भागों तथा तमिलनाडु के दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट पर पाई जाती है।

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मिट्टी के अध्ययन के विषय को क्या कहा जाता है ?

मृदा के अध्ययन के विषय को मृदा विज्ञान या पेडोलॉजी कहा जाता है।

भारत में मृदा का वर्गीकरण कितने भागों में किया जाता है ?

भारत में मृदा का वर्गीकरण को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया गया है।
प्रायद्वीपीय मिट्टियां
मैदान की मिट्टियां
हिमालय की मिट्टियां
अन्य मिट्टियां

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