हिन्दी ऑनलाइन जानकारी के मंच पर आज हम पढ़ेंगे famous Shivmangal Singh Suman Poems in Hindi, शिवमंगल सिंह सुमन की कविताएं, शिवमंगल सिंह सुमन की रचनाएँ, Shivmangal Singh Suman poetry in Hindi, Shivmangal Singh Suman ki Kavita.
Famous Shivmangal Singh Suman Poems in Hindi, शिवमंगल सिंह सुमन की कविताएं -:

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार Shivmangal Singh Suman Poems –:
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।।
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।।
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।।
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।।
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।।

वरदान माँगूँगा नहीं Shivmangal Singh Suman Poems –:
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खण्डहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्व की सम्पत्ति चाहूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्त्तव्य पथ से किन्तु भागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
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परिचय Shivmangal Singh Suman Poems –:
हम दीवानों का क्या परिचय ?
कुछ चाव लिए, कुछ चाह लिए
कुछ कसकन और कराह लिए
कुछ दर्द लिए, कुछ दाह लिए
हम नौसिखिए, नूतन पथ पर चल दिए, प्रणय का कर विनिमय
हम दीवानों का क्या परिचय ?
विस्मृति की एक कहानी ले
कुछ यौवन की नादानी ले
कुछ—कुछ आंखों में पानी ले
हो चले पराजित अपनों से, कर चले जगत को आज विजय
हम दीवानों का क्या परिचय ?
हम शूल बढ़ाते हुए चले
हम फूल चढ़ाते हुए चले
हम धूल उड़ाते हुए चले
हम लुटा चले अपनी मस्ती, अरमान कर चले कुछ संचय
हम दीवानों का क्या परिचय ?
हम चिर–नूतन विश्वास लिए
प्राणों में पीड़ा—पाश लिए
मर मिटने की अभिलाषा लिए
हम मिटते रहते हैं प्रतिपल, कर अमर प्रणय में प्राण–निलय
हम दीवानों का क्या परिचय ?
हम पीते और पिलाते हैं
हम लुटते और लुटाते हैं
हम मिटते और मिटाते हैं
हम इस नन्हीं–सी जगती में, बन–बन मिट–मिट करते अभिनय
हम दीवानों का क्या परिचय ?
शाश्वत यह आना–जाना है
क्या अपना और बिराना है
प्रिय में सबको मिल जाना है
इतने छोटा–से जीवन में, इतना ही कर पाए निश्चय
हम दीवानों का क्या परिचय ?
शाश्वत यह आना–जाना है
क्या अपना और बिराना है
प्रिय में सबको मिल जाना है
इतने छोटे–से जीवन में, इतना ही कर पाए निश्चय
हम दीवानों का क्या परिचय ?
चलना हमारा काम है Shivmangal Singh Suman Poems –:
गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है।
कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।
जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठों याम है,
चलना हमारा काम है।
इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।
मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे ?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।
साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।
फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।
असमंजस Shivmangal Singh Suman Poems –:
जीवन में कितना सूनापन
पथ निर्जन है, एकाकी है,
उर में मिटने का आयोजन
सामने प्रलय की झाँकी है
वाणी में है विषाद के कण
प्राणों में कुछ कौतूहल है
स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन
पग अस्थिर है, मन चंचल है
यौवन में मधुर उमंगें हैं
कुछ बचपन है, नादानी है
मेरे रसहीन कपालो पर
कुछ-कुछ पीडा का पानी है
आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही
बस एक मात्र मेरा धन है
मेरी श्वासों, निःश्वासों में
आशा का चिर आश्वासन है
मेरी सूनी डाली पर खग
कर चुके बंद करना कलरव
जाने क्यों मुझसे रूठ गया
मेरा वह दो दिन का वैभव
कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत
भावी है व्यापक अन्धकार
उस पार कहां ? वह तो केवल
मन बहलाने का है विचार
आगे, पीछे, दायें, बायें
जल रही भूख की ज्वाला यहाँ
तुम एक ओर, दूसरी ओर
चलते फिरते कंकाल यहाँ
इस ओर रूप की ज्वाला में
जलते अनगिनत पतंगे हैं
उस ओर पेट की ज्वाला से
कितने नंगे भिखमंगे हैं
इस ओर सजा मधु-मदिरालय
हैं रास-रंग के साज कहीं
उस ओर असंख्य अभागे हैं
दाने तक को मुहताज कहीं
इस ओर अतृप्ति कनखियों से
सालस है मुझे निहार रही
उस ओर साधना पथ पर
मानवता मुझे पुकार रही
तुमको पाने की आकांक्षा
उनसे मिल मिटने में सुख है
किसको खोजूँ, किसको पाऊँ
असमंजस है, दुस्सह दुख है
बन-बनकर मिटना ही होगा
जब कण-कण में परिवर्तन है
संभव हो यहां मिलन कैसे
जीवन तो आत्म-विसर्जन है
सत्वर समाधि की शय्या पर
अपना चिर-मिलन मिला लूँगा
जिनका कोई भी आज नहीं
मिटकर उनको अपना लूँगा।
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बात की बात Shivmangal Singh Suman Poems –:
इस जीवन में बैठे ठाले ऐसे भी क्षण आ जाते हैं।
जब हम अपने से ही अपनी बीती कहने लग जाते हैं।
तन खोया-खोया-सा लगता मन उर्वर-सा हो जाता है।
कुछ खोया-सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है।
लगता, सुख-दुख की स्मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूँ।
यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ।
कवि की अपनी सीमाएं है कहता जितना कह पाता है।
कितना भी कह डाले, लेकिन अनकहा अधिक रह जाता है।
यों ही चलते-फिरते मन में बेचैनी सी क्यों उठती है ?
बसती बस्ती के बीच सदा सपनों की दुनिया लुटती है।
जो भी आया था जीवन में यदि चला गया तो रोना क्या ?
ढलती दुनिया के दानों में सुधियों के तार पिरोना क्या ?
जीवन में काम हजारों हैं मन रम जाए तो क्या कहना।
दौड़-धूप के बीच एक-क्षण, थम जाए तो क्या कहना।
कुछ खाली खाली होगा ही जिसमें निश्वास समाया था।
उससे ही सारा झगड़ा है जिसने विश्वास चुराया था।
फिर भी सूनापन साथ रहा तो गति दूनी करनी होगी।
साँचे के तीव्र-विवर्त्तन से मन की पूनी भरनी होगी।
जो भी अभाव भरना होगा चलते-चलते भर जाएगा।
पथ में गुनने बैठूँगा तो जीना दूभर हो जाएगा।
हम पंछी उन्मुक्त गगन के Shivmangal Singh Suman Poems –:
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएँगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती साँसों की डोरी।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।
मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला Shivmangal Singh Suman Poems –:
घर-आंगन में आग लग रही।
सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं
जलते छप्पर- छाजन।
तन जलता है , मन जलता है
जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से
जकड़े गर्हित बंधन।
दूर बैठकर ताप रहा है,
आग लगानेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझाने वाला।
भाई की गर्दन पर
भाई का तन गया दुधारा
सब झगड़े की जड़ है
पुरखों के घर का बँटवारा
एक अकड़कर कहता
अपने मन का हक ले लेंगें,
और दूसरा कहता तिल
भर भूमि न बँटने देंगें।
पंच बना बैठा है घर में,
फूट डालनेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझाने वाला।
दोनों के नेतागण बनते
अधिकारों के हामी,
किंतु एक दिन को भी
हमको अखरी नहीं गुलामी।
दानों को मोहताज हो गए
दर-दर बने भिखारी,
भूख, अकाल, महामारी से
दोनों की लाचारी।
आज धार्मिक बना,
धर्म का नाम मिटानेवाला
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझाने वाला।
होकर बड़े लड़ेंगें यों
यदि कहीं जान मैं लेती,
कुल-कलंक-संतान
सौर में गला घोंट मैं देती।
लोग निपूती कहते पर
यह दिन न देखना पड़ता,
मैं न बंधनों में सड़ती
छाती में शूल न गढ़ता।
बैठी यही बिसूर रही माँ,
नीचों ने घर घाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझाने वाला।
भगतसिंह, अशफाक,
लालमोहन, गणेश बलिदानी,
सोच रहें होंगें, हम सबकी
व्यर्थ गई कुरबानी
जिस धरती को तन की
देकर खाद खून से सींचा ,
अंकुर लेते समय उसी पर
किसने जहर उलीचा।
हरी भरी खेती पर ओले गिरे,
पड़ गया पाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझाने वाला।
जब भूखा बंगाल,
तड़पमर गया ठोककर किस्मत,
बीच हाट में बिकी
तुम्हारी माँ – बहनों की अस्मत।
जब कुत्तों की मौत मर गए
बिलख-बिलख नर-नारी ,
कहाँ कई थी भाग उस समय
मरदानगी तुम्हारी।
तब अन्यायी का गढ़ तुमने
क्यों न चूर कर डाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझाने वाला।
पुरखों का अभिमान तुम्हारा
और वीरता देखी,
राम – मुहम्मद की संतानों
व्यर्थ न मारो शेखी।
सर्वनाश की लपटों में
सुख-शांति झोंकनेवालों
भोले बच्चें, अबलाओ के
छुरा भोंकनेवालों
ऐसी बर्बरता का
इतिहासों में नहीं हवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझाने वाला।
घर-घर माँ की कलख
पिता की आह, बहन का क्रंदन,
हाय , दूधमुँहे बच्चे भी
हो गए तुम्हारे दुश्मन ?
इस दिन की खातिर ही थी
शमशीर तुम्हारी प्यासी ?
मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी
रहे न भारतवासी।
हँसते हैं सब देख
गुलामों का यह ढंग निराला।
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझाने वाला।
जाति-धर्म गृह-हीन
युगों का नंगा-भूखा-प्यासा,
आज सर्वहारा तू ही है
एक हमारी आशा।
ये छल छंद शोषकों के हैं
कुत्सित, ओछे, गंदे,
तेरा खून चूसने को ही
ये दंगों के फंदे।
तेरा एका गुमराहों को
राह दिखानेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझाने वाला।
मिट्टी की महिमा Shivmangal Singh Suman Poems –:
निर्मम कुम्हार की थापी से
कितने रूपों में कुटी-पिटी,
हर बार बिखेरी गई, किंतु
मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी।
आशा में निश्छल पल जाए, छलना में पड़ कर छल जाए
सूरज दमके तो तप जाए, रजनी ठुमकी तो ढल जाए,
यों तो बच्चों की गुडिया सी, भोली मिट्टी की हस्ती क्या
आँधी आये तो उड़ जाए, पानी बरसे तो गल जाए।
फसलें उगतीं, फसलें कटती लेकिन धरती चिर उर्वर है
सौ बार बने सौ बर मिटे लेकिन धरती अविनश्वर है।
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।
विरचे शिव, विष्णु विरंचि विपुल
अगणित ब्रम्हाण्ड हिलाए हैं।
पलने में प्रलय झुलाया है
गोदी में कल्प खिलाए हैं।
रो दे तो पतझर आ जाए, हँस दे तो मधुरितु छा जाए
झूमे तो नंदन झूम उठे, थिरके तो तांड़व शरमाए
यों मदिरालय के प्याले सी मिट्टी की मोहक मस्ती क्या
अधरों को छू कर सकुचाए, ठोकर लग जाये छहराए।
उनचास मेघ, उनचास पवन, अंबर अवनि कर देते सम
वर्षा थमती, आँधी रुकती, मिट्टी हँसती रहती हरदम,
कोयल उड़ जाती पर उसका निश्वास अमर हो जाता है
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।
मिट्टी की महिमा मिटने में
मिट मिट हर बार सँवरती है
मिट्टी मिट्टी पर मिटती है
मिट्टी मिट्टी को रचती है
मिट्टी में स्वर है, संयम है, होनी अनहोनी कह जाए
हँसकर हालाहल पी जाए, छाती पर सब कुछ सह जाए,
यों तो ताशों के महलों सी मिट्टी की वैभव बस्ती क्या
भूकम्प उठे तो ढह जाए, बूड़ा आ जाए, बह जाए।
लेकिन मानव का फूल खिला, अब से आ कर वाणी का वर
विधि का विधान लुट गया स्वर्ग अपवर्ग हो गए निछावर,
कवि मिट जाता लेकिन उसका उच्छ्वास अमर हो जाता है
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।
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आज देश की मिट्टी बोल उठी है Shivmangal Singh Suman Poems –:
लौह-पदाघातों से मर्दित
हय-गज-तोप-टैंक से खौंदी
रक्तधार से सिंचित पंकिल
युगों-युगों से कुचली रौंदी।
व्याकुल वसुंधरा की काया
नव-निर्माण नयन में छाया।
कण-कण सिहर उठे
अणु-अणु ने सहस्राक्ष अंबर को ताका
शेषनाग फूत्कार उठे
साँसों से निःसृत अग्नि-शलाका।
धुआँधार नभी का वक्षस्थल
उठे बवंडर, आँधी आई,
पदमर्दिता रेणु अकुलाकर
छाती पर, मस्तक पर छाई।
हिले चरण, मतिहरण
आततायी का अंतर थर-थर काँपा
भूसुत जगे तीन डग में ।
बावन ने तीन लोक फिर नापा।
धरा गर्विता हुई सिंधु की छाती डोल उठी है।
आज देश की मिट्टी बोल उठी है।
आज विदेशी बहेलिए को
उपवन ने ललकारा
कातर-कंठ क्रौंचिनी चीख़ी
कहाँ गया हत्यारा?
कण-कण में विद्रोह जग पड़ा
शांति क्रांति बन बैठी,
अंकुर-अंकुर शीश उठाए
डाल-डाल तन बैठी।
कोकिल कुहुक उठी
चातक की चाह आग सुलगाए
शांति-स्नेह-सुख-हंता
दंभी पामर भाग न जाए।
संध्या-स्नेह-सँयोग-सुनहला
चिर वियोग सा छूटा
युग-तमसा-तट खड़े
मूक कवि का पहला स्वर फूटा।
ठहर आततायी, हिंसक पशु
रक्त पिपासु प्रवंचक
हरे भरे वन के दावानल
क्रूर कुटिल विध्वंसक।
देख न सका सृष्टि शोभा वर
सुख-समतामय जीवन
ठट्ठा मार हँस रहा बर्बर
सुन जगती का क्रंदन।
घृणित लुटेरे, शोषक
समझा पर धन-हरण बपौती
तिनका-तिनका खड़ा दे रहा
तुझको खुली चुनौती।
जर्जर-कंकालों पर वैभव
का प्रासाद बसाया
भूखे मुख से कौर छीनते
तू न तनिक शरमाया।
तेरे कारण मिटी मनुजता
माँग-माँग कर रोटी
नोची श्वान-शृगालों ने
जीवित मानव की बोटी।
तेरे कारण मरघट-सा
जल उठा हमारा नंदन,
लाखों लाल अनाथ
लुटा अबलाओं का सुहाग-धन।
झूठों का साम्राज्य बस गया
रहे न न्यायी सच्चे,
तेरे कारण बूँद-बूँद को
तरस मर गए बच्चे।
लुटा पितृ-वात्सल्य
मिट गया माता का मातापन
मृत्यु सुखद बन गई
विष बना जीवन का भी जीवन।
तुझे देखना तक हराम है
छाया तलक अखरती
तेरे कारण रही न
रहने लायक सुंदर धरती
रक्तपात करता तू
धिक्-धिक् अमृत पीनेवालो,
फिर भी तू जीता है
धिक्-धिक् जग के जीनेवालो।
देखें कल दुनिया में
तेरी होगी कहाँ निशानी ?
जा तुझको न डूब मरने
को भी चुल्लू भर पानी।
शाप न देंगे हम
बदला लेने को आन हमारी
बहुत सुनाई तूने अपनी
आज हमारी बारी।
आज ख़ून के लिए ख़ून
गोली का उत्तर गोली
हस्ती चाहे मिटे,
न बदलेगी बेबस की बोली।
तोप-टैंक-एटमबम
सबकुछ हमने सुना-गुना था
यह न भूल मानव की
हड्डी से ही वज्र बना था।
कौन कह रहा हमको हिंसक
आपत् धर्म हमारा,
भूखों नंगों को न सिखाओ
शांति-शांति का नारा।
कायर की सी मौत जगत में
सबसे गर्हित हिंसा
जीने का अधिकार जगत में
सबसे बड़ी अहिंसा।
प्राण-प्राण में आज रक्त की सरिता खौल उठी है।
आज देश की मिट्टी बोल उठी है।
इस मिट्टी के गीत सुनाना
कवि का धन सर्वोत्तम
अब जनता जनार्दन ही है
मर्यादा-पुरुषोत्तम।
यह वह मिट्टी जिससे उपजे
ब्रह्मा, विष्णु, भवानी
यह वह मिट्टी जिसे
रमाए फिरते शिव वरदानी।
खाते रहे कन्हैया
घर-घर गीत सुनाते नारद,
इस मिट्टी को चूम चुके हैं
ईसा और मुहम्मद।
व्यास, अरस्तू, शंकर
अफ़लातून के बँधी न बाँधी
बार-बार ललचाए
इसके लिए बुद्ध औ’ गाँधी।
यह वह मिट्टी जिसके रस से
जीवन पलता आया,
जिसके बल पर आदिम युग से
मानव चलता आया।
यह तेरी सभ्यता संस्कृति
इस पर ही अवलंबित
युगों-युगों के चरणचिह्न
इसकी छाती पर अंकित।
रूपगर्विता यौवन-निधियाँ
इन्हीं कणों से निखरी
पिता पितामह की पदरज भी
इन्हीं कणों में बिखरी।
लोहा-ताँबा चाँदी-सोना
प्लैटिनम् पूरित अंतर
छिपे गर्भ में जाने कितने
माणिक, लाल, जवाहर।
मुक्ति इसी की मधुर कल्पना
दर्शन नव मूल्यांकन
इसके कण-कण में उलझे हैं
जन्म-मरण के बंधन।
रोई तो पल्लव-पल्लव पर
बिखरे हिम के दाने,
विहँस उठी तो फूल खिले
अलि गाने लगे तराने।
लहर उमंग हृदय की, आशा–
अंकुर, मधुस्मित कलियाँ
नयन-ज्योति की प्रतिछवि
बनकर बिखरी तारावलियाँ।
रोमपुलक वनराजि, भावव्यंजन
कल-कल ध्वनि निर्झर
घन उच्छ्वास, श्वास झंझा
नव-अंग-उभार गिरि-शिखर।
सिंधु चरण धोकर कृतार्थ
अंचल थामे छिति-अंबर,
चंद्र-सूर्य उपकृत निशिदिन
कर किरणों से छू-छूकर।
अंतस्ताप तरल लावा
करवट भूचाल भयंकर
अंगड़ाई कलपांत
प्रणय-प्रतिद्वंद्व प्रथम मन्वंतर।
किस उपवन में उगे न अंकुर
कली नहीं मुसकाई
अंतिम शांति इसी की
गोदी में मिलती है भाई।
सृष्टिधारिणी माँ वसुंधरे
योग-समाधि अखंडित,
काया हुई पवित्र न किसकी
चरण-धूलि से मंडित।
चिर-सहिष्णु, कितने कुलिशों को
व्यर्थ नहीं कर डाला
जेठ-दुपहरी की लू झेली
माघ-पूस का पाला।
भूखी-भूखी स्वयं
शस्य-श्यामला बनी प्रतिमाला,
तन का स्नेह निचोड़
अँधेरे घर में किया उजाला।
सब पर स्नेह समान
दुलार भरे अंचल की छाया
इसीलिए, जिससे बच्चों की
व्यर्थ न कलपे काया।
किंतु कपूतों ने सब सपने
नष्ट-भ्रष्ट कर डाले,
स्वर्ग नर्क बन गया
पड़ गए जीने के भी लाले।
भिगो-भिगो नख-दंत रक्त में
लोहित रेखा रचा दी,
चाँदी की टुकड़ों की ख़ातिर
लूट-खसोट मचा दी।
कुत्सित स्वार्थ, जघन्य वितृष्णा
फैली घर-घर बरबस,
उत्तम कुल पुलस्त्य का था
पर स्वयं बन गए राक्षस।
प्रभुता के मद में मदमाते
पशुता के अभिमानी
बलात्कार धरती की बेटी से
करने की ठानी।
धरती का अभिमान जग पड़ा
जगा मानवी गौरव,
जिस ज्वाला में भस्म हो गया
घृणित दानवी रौरव।
आज छिड़ा फिर मानव-दानव में
संघर्ष पुरातन
उधर खड़े शोषण के दंभी
इधर सर्वहारागण।
पथ मंज़िल की ओर बढ़ रहा
मिट-मिट नूतन बनता
त्रेता बानर भालु,
जगी अब देश-देश की जनता।
पार हो चुकी थीं सीमाएँ
शेष न था कुछ सहना,
साथ जगी मिट्टी की महिमा
मिट्टी का क्या कहना ?
धूल उड़ेगी, उभरेगी ही
जितना दाबो-पाटो,
यह धरती की फ़सल
उगेगी जितना काटो-छाँटो।
नव-जीवन के लिए व्यग्र
तन-मन-यौवन जलता है
हृदय-हृदय में, श्वांस-श्वांस में
बल है, व्याकुलता है।
वैदिक अग्नि प्रज्वलित पल में
रक्त मांस की बलि अंजुलि में
पूर्णाहुति-हित उत्सुक होता
अब कैसा किससे समझौता?
बलिवेदी पर विह्वल-जनता जीवन तौल उठी है
आज देश की मिट्टी बोल उठी है।
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार Shivmangal Singh Suman Poems -:
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था।
गति मिली मैं चल पड़ा
पथ पर कहीं रुकना मना था,
राह अनदेखी, अजाना देश
संगी अनसुना था।
चांद सूरज की तरह चलता
न जाना रात दिन है,
किस तरह हम तुम गए मिल
आज भी कहना कठिन है,
तन न आया मांगने अभिसार
मन ही जुड़ गया था।
देख मेरे पंख चल, गतिमय
लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छिपाए मुख
कली भी मुस्कुराई।
एक क्षण को थम गए डैने
समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
आ गई आंधी सदलबल।
डाल झूमी, पर न टूटी
किंतु पंछी उड़ गया था।
पर आंखें नहीं भरी Shivmangal Singh Suman Poems -:
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आंखें नहीं भरीं।
सीमित उर में चिर-असीम
सौंदर्य समा न सका
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग
मन रोके नहीं रुका
यों तो कई बार पी-पीकर
जी भर गया छका
एक बूंद थी, किंतु,
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आंखें नहीं भरीं।
शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
कण-कण में बिखरी
मिलन सांझ की लाज सुनहरी
ऊषा बन निखरी,
हाय, गूंथने के ही क्रम में
कलिका खिली, झरी
भर-भर हारी, किंतु रह गई
रीती ही गगरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आंखें नहीं भरीं।
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला Shivmangal Singh Suman Poems -:
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद
जीवन अस्थिर अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं
दाएं-बाएं सुख-दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद।
सांसों पर अवलम्बित काया
जब चलते-चलते चूर हुई
दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली
नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई
पथ के पहचाने छूट गए
पर साथ-साथ चल रही याद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद
जो साथ न मेरा दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूं यदि तो भी क्या
राही मर लेकिन राह अमर
इस पथ पर वे ही चलते हैं
जो चलने का पा गए स्वाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद
कैसे चल पाता यदि न मिला
होता मुझको आकुल-अन्तर
कैसे चल पाता यदि मिलते
चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर
आभारी हूं मैं उन सबका
दे गए व्यथा का जो प्रसाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद
मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर तुम्हें भूला नहीं हूँ Shivmangal Singh Suman Poems -:
चल रहा हूँ, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती,
जल रहा हूँ क्योंकि जलने से तमिस्त्रा चूर होती,
गल रहा हूँ क्योंकि हल्का बोझ हो जाता हृदय का,
ढल रहा हूँ क्योंकि ढलकर साथ पा जाता समय का।
चाहता तो था कि रुक लूँ पार्श्व में क्षण-भर तुम्हारे
किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बाँहे पसारे,
अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचन कापुरुषता
मुँह दिखाने योग्य रक्खेगी ना मुझको स्वार्थपरता।
इसलिए ही आज युग की देहली को लाँघ कर मैं-
पथ नया अपना रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ
ज्ञात है कब तक टिकेगी यह घड़ी भी संक्रमण की
और जीवन में अमर है भूख तन की, भूख मन की
विश्व-व्यापक-वेदना केवल कहानी ही नहीं है
एक जलता सत्य केवल आँख का पानी नहीं है।
शान्ति कैसी, छा रही वातावरण में जब उदासी
तृप्ति कैसी, रो रही सारी धरा ही आज प्यासी
ध्यान तक विश्राम का पथ पर महान अनर्थ होगा
ऋण न युग का दे सका तो जन्म लेना व्यर्थ होगा।
इसलिए ही आज युग की आग अपने राग में भर-
गीत नूतन गा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ
सोचता हूँ आदिकवि क्या दे गये हैं हमें थाती
क्रौञ्चिनी की वेदना से फट गई थी हाय छाती
जबकि पक्षी की व्यथा से आदिकवि का व्यथित अन्तर
प्रेरणा कैसे न दे कवि को मनुज कंकाल जर्जर।
अन्य मानव और कवि में है बड़ा कोई ना अन्तर
मात्र मुखरित कर सके, मन की व्यथा, अनुभूति के स्वर
वेदना असहाय हृदयों में उमड़ती जो निरन्तर
कवि न यदि कह दे उसे तो व्यर्थ वाणी का मिला वर
इसलिए ही मूक हृदयों में घुमड़ती विवशता को-
मैं सुनाता जा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ
आज शोषक-शोषितों में हो गया जग का विभाजन
अस्थियों की नींव पर अकड़ा खड़ा प्रासाद का तन
धातु के कुछ ठीकरों पर मानवी-संज्ञा-विसर्जन
मोल कंकड़-पत्थरों के बिक रहा है मनुज-जीवन।
एक ही बीती कहानी जो युगों से कह रहे हैं
वज्र की छाती बनाए, सह रहे हैं, रह रहे हैं
अस्थि-मज्जा से जगत के सुख-सदन गढ़ते रहे जो
तीक्ष्णतर असिधार पर हँसते हुए बढ़ते रहे जो
अश्रु से उन धूलि-धूसर शूल जर्जर क्षत पगों को-
मैं भिगोता जा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ
आज जो मैं इस तरह आवेश में हूँ अनमना हूँ
यह न समझो मैं किसी के रक्त का प्यासा बना हूँ
सत्य कहता हूँ पराए पैर का काँटा कसकता
भूल से चींटी कहीं दब जाय तो भी हाय करता
पर जिन्होंने स्वार्थवश जीवन विषाक्त बना दिया है
कोटि-कोटि बुभुक्षितों का कौर तलक छिना लिया है
‘लाभ शुभ’ लिख कर ज़माने का हृदय चूसा जिन्होंने
और कल बंगालवाली लाश पर थूका जिन्होंने।
बिलखते शिशु की व्यथा पर दृष्टि तक जिनने न फेरी
यदि क्षमा कर दूँ उन्हें धिक्कार माँ की कोख मेरी
चाहता हूँ ध्वंस कर देना विषमता की कहानी
हो सुलभ सबको जगत में वस्त्र, भोजन, अन्न, पानी।
नव भवन निर्माणहित मैं जर्जरित प्राचीनता का-
गढ़ ढ़हाता जा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ
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